आगे बढ़ता जा - कविता - दीक्षा

अकेला न समझ तू ख़ुद को ऐ मुसाफ़िर
राह है तेरी, मंज़िल है तेरी
सपना तूने देखा है,
उस सपने को तूने अपना हमसफ़र देखा है।
ठोकरें खाकर तू तो लाख बार उठा है
अपने सपनों के लिए तू अपनों से लड़ा है,
अकेला जब तू इस राह पर चल पड़ा है।
ख़ुद पर यक़ीन करना नहीं, जब तूने छोड़ा है
तो डरता क्यों है उन अँधेरों से
जब तेरे अंदर ही रोशनी का बसेरा है।
जब तूने कसम खा ही ली है सपने पूरे करने की,
तो क्यों तुझे इस दुनिया की फ़िकर है
लाख मुश्किलें ही क्यों न आ जाए तू निडर है।
अब तू आगे बढ़, रुकना नहीं है
पीछे मुड़कर देखना नहीं है,
तू बस राहों पर चलता जा,
मंज़िलें कब तेरे सामने
तेरे क़दमों में होगी,
तुझे पता भी नहीं चलेगा
बस अब दिल की सुनता जा
और आगे बढ़ता जा, बढ़ता जा।

दीक्षा - शिमला (हिमाचल प्रदेश)

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