रिश्ते लगे बिखरने - कविता - अर्चना कोहली

अपनेपन की चादर से बुने रिश्ते लगे बिखरने,
ईर्ष्या-कलह के आवरण में ख़ुद को लगे भूलने।
सर्द रातों में जो अलाव के चहुँ और होता था घेरा,
नानी-दादी के क़िस्सों का नहीं होता अब सवेरा।।

पहले उम्र की सीमा से परे था ख़ुशी का खजाना,
उत्सव मनाने का रहते थे खोजते वे सब बहाना।
उदासी का दिल में अधिक देर रहता न था बसेरा,
विश्वबंधुत्व की भावना का चहुँदिश में था टेरा।।

कोहरे की झीनी-चादर से नभ होता आच्छादित,
आते-जाते राहगीर हाथ सेंक होते थे प्रफुल्लित।
शीत से राहत पाने अलाव पास ही होता जमघट,
किसी भी बात पर किसी से नहीं होती खटपट।।

अनुभव-पाठशाला से सलाह मिलती अनमोल,
बड़े-बुजुर्गों की बातों का होता है बहुत ही मोल।
भुने चने-शकरकंद-मक्का खाना लगता प्यारा,
सबके साथ दिल से जुड़ाव लगता बहुत न्यारा।।

समृद्धि की दौड़ से बर्फ़ से ठंडे रिश्ते होने लगे,
जज़्बातों से भरे अहसास राह अपनी खोने लगे।
आज बंद कमरों में ही जनमानस ठिठुरता है,
हीटर-ब्लोअर तले ही पूस का माह बीतता है।।

इस दौर में अलाव तले हँसी की गूँज सुप्त हुई,
सर्द रातों में महकती प्रेम-फुलवारी विलुप्त हुई।
अब फटेहाल निर्धनों तक ही ख़ुशी-अलाव है,
उनकी बस्ती में ही दिल का दिल से जुड़ाव है।।

अर्चना कोहली - नोएडा (उत्तर प्रदेश)

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