जाति-पाँति - कविता - सिद्धार्थ गोरखपुरी

जाति-पाति में मत उलझो,
रहना है हमें हर ठाँव बराबर।
सिर के ऊपर सूरज तपता,
तो पाँव के नीचे छाँव बराबर।
चमड़े का है रंग अलग पर
लहू एक जैसा ही है,
ख़ुशी महसूस बराबर होती,
महसूस होता हर घाव बराबर।
जाति-पाँति में मत उलझो,
रहना है हमें हर ठाँव बराबर।
भावना एक जैसी अपनी और
सच मे भाव एक ही हो।
एक दूसरे के साथ चलें और
हमारा लगाव एक ही हो।
दोनों मिल पतवार चलाएँगे,
तो चलेगी अपनी नाँव बराबर।
जाति-पाँति में मत उलझो,
रहना है हमें हर ठाँव बराबर।
आज नया रूप रंग है पर
एक शरीर के हिस्से हैं।
हमारा लहू एक ही है,
हम नहीं पुराने क़िस्से हैं।
शरीर भले विचलित होता,
पर मन का है ठहराव बराबर।
जाति-पाँति में मत उलझो,
रहना है हमें हर ठाँव बराबर।

सिद्धार्थ गोरखपुरी - गोरखपुर (उत्तर प्रदेश)

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