बसंत - कविता - शुचि गुप्ता

मेरे जीवन पतझड़ के बस, तुम ही हृदय बसंत थे,
अन्तस तल उमगित भावों के, पर्शित वृहद दिगंत थे।

प्रस्तर से जड़ स्वप्न नयन में, तुमने डाले प्राण थे,
मृसण सहस हृद पर तब चलते, मनसिज पुष्पित वाण थे।
उर वसुधा अभिलाषाओं के, अंकुर नवल अनंत थे,
अन्तस तल उमगित भावों के, पर्शित वृहद दिगंत थे।

जन्मों-जनम तृषा को साधे, निर्झर आया द्वार स्वयं,
अरु सरिता की व्याकुलता को, सागर करता हृदयंगम।
डगर-डगर वर्षों की यात्रा, तुम भटकन का अंत थे,
अन्तस तल उमगित भावों के, पर्शित वृहद दिगंत थे।

अंबर भी था हुआ बसंती, पुष्प पीत परिधान में,
प्रकृति प्रिया ने आश्रय पाया, प्रियतम पाश निधान में।
मेरा सब सौभाग्य तुम्ही से, शुचि के तुम ही कंत थे,
अन्तस तल उमगित भावों के, पर्शित वृहद दिगंत थे।

शुचि गुप्ता - कानपुर (उत्तरप्रदेश)

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