ऐ मेरे प्यारे खेत! - कविता - नीलम गुप्ता

अपने गाँव के खेत-खलिहानों से यूँ बिछुड़ना
जैसे, शरीर से आत्मा का अलगाव हो।
क्योंकि एक जन्म से तो नहीं, बल्कि
कई जन्मों से जो गहरा लगाव है
तुझसे दूर होना कौन चाहेगा,
ऐ मेरे प्राणों से भी प्यारे खेत!
तेरा यूँ जाड़े गर्मी एवं बरसात को सहे जाना ने ही तो
मुझे ज़िन्दगी में संघर्ष करते रहना सीखाया है।
प्रकृति के हर आपदा को सहते हुए भी
तेरा यूँ मुस्कराते रहना
हर रोज़, मुझे नये जीवन जीने का
संकेत दे जाता है।
जी तो यही चाहता है कि गुज़ार दूँ तेरे मेड़ों पर 
ज़िन्दगी के हर एक लम्हें!
पर मैं क्या करूँ? ऐ मेरे प्यारे खेत!
मेरी ऐसी क्या मजबूरी हो गई?
जो मेरी, तुझसे इतनी दूरी हो गई।
ऐ मेरे खेत!! तुमसे झूठ क्यूँ बोलूँ?
तुमसे कुछ छुपा नहीं
और न कभी कुछ छुपा पाना संभव ही होगा।
तुम तो जानते ही हो, गाँव का आदमी
आज भी गँवार ही समझा जाता है।
अगर शिक्षा, रोज़गार और दवाखाने की
भरपूर व्यवस्था अपने गाँवों में भी रहती 
तो आज शहर की तरफ़ पलायन करने की
नौबत ही भला क्यूँ आती?
लेकिन ऐ मेरे प्यारे खेत!
अब तक तुने ही तो मुझे,
जिलाया, खिलाया और बड़े प्यार से दुलारा है।
इसलिए तुम भी मेरे मात-पिता, बन्धु, सखा तुल्य हो।
भले ही हम तुमसे दूर रह रहे हैं,
लेकिन, ऐ मेरे प्यारे खेत!
मेरी आत्मा को सुकून तो तुम्हारे 
छोटे-छोटे झुरमुट जैसे बाहों में ही मिलता है।
मेरी आत्मा हर पल तुम्हारे,
हरे-भरे, लहलहाते और मुस्कुराते,
छोटे-छोटे झाड़ियों के बीच में पड़े मेड़ों पर 
गुनगुनाते हुए मिल जाएगी।

नीलम गुप्ता - वाराणसी (उत्तर प्रदेश)

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