ऐ बसन्त! - कविता - सुषमा दीक्षित शुक्ला

जाने पहचाने से लगते हो,
ऐ! स्वर्णिम सुंदर प्रिय बसन्त।
पाषाण युगों से आज तलक,
देखे हैं तुमने युग युगांत।

तुम परिवर्तन के साधक हो,
पतझड़ में लाते बहार।
है कायाकल्प बना तुमसे,
तुम जीवन के कर्णधार।

तुम परिणय हो कौमार्य तुम्ही,
तुम प्रेमी हो सौंदर्य तुम्ही।
तुम तृष्णा हो तो धैर्य तुम्ही,
वीरों के उर का शौर्य तुम्ही।

तुम धानी रंग की चूनर हो,
तुम मधुर मिलन शहनाई हो।
सरसों की पीली चादर तुम,
तुम यौवन की अँगड़ाई हो।

होंठो की हँसी बना करते,
तुम काम दूत तुम भोगी हो।
आँसू भी बन जाते तुम,
तुम वैरागी तुम योगी हो।

होली की आहट लाते हो,
हे! प्रेमदेव हे! प्रिय बसन्त।
रंग रंगोली बन जाते हो,
ऐ! सुंदर स्वर्णिम प्रिय बसन्त।

सुषमा दीक्षित शुक्ला - राजाजीपुरम, लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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