पूर्वी बयार था मतवाला,
छाई तन में अँगड़ाई।
याद सताती रही तुम्हारी,
निशिभर नींद नहीं आई।
देख मुझको आधी रात में,
नागिन भी डर के भागी।
लगी आग मेरे तन-मन में,
अब तो आओ अनुरागी।
बेसुध कैसे देह छुपाऊँ?
अंग-अंग जहर समाई।
याद सताती रही तुम्हारी,
निशिभर नींद नहीं आई।
जागे-जागे क्या करती फिर,
छत पर जाकर खोई थी।
सोच-सोच तेरी शरारतें,
हँस-हँस कर तब रोई थी।
कैसी है तेरी प्रीत सनम,
ख़ूब पल-पल गुदगुदाई।
याद सताती रही तुम्हारी,
निशिभर नींद नहीं आई।
गूँथी हुई हो छंद लय में,
जैसे मोहक कविताएँ।
भाँति-भाँति के भाव लिए हो,
हिय को मेरे हरषाए।
हम दोनों भी ऐसे ही हैं,
अजब प्रेम की गहराई।
याद सताती रही तुम्हारी,
निशिभर नींद नहीं आई।
संजय राजभर 'समित' - वाराणसी (उत्तर प्रदेश)