व्यवधान - कविता - सिद्धार्थ गोरखपुरी

व्यवधान अनेकों जीवन में,
रह-रह कर उपजा करते हैं।
हम मन को थोड़ा समझाते हैं,
और वक़्त से सुलहा करते हैं।

तनिक साँस तो लेने दो,
इम्तेहान पर इम्तेहान न लो।
ऐ व्यवधानों तनिक ठहरो,
रह-रह कर मेरी जान न लो।

वे मशले भी उलझ जातें हैं,
जो अक्सर सुलझा करते हैं।
व्यवधान अनेकों जीवन में,
रह-रह कर उपजा करते हैं।

अक्सर गहरी रातों में,
उलूल-जुलूल की बातों से,
हम खुद से झगड़ा करते हैं,
व्यवधान अनेकों जीवन में
रह-रह कर उपजा करते हैं।।

एक अरसे तक क़िस्मत देखी,
क़िस्मत ने की हरदम अनदेखी।
वक़्त हालात जब बदल गए,
फिर तन्हा-तन्हा रहते हैं।
व्यवधान अनेकों जीवन में,
रह-रह कर उपजा करते हैं।

काश मुझे भी चैन मिले,
सुकून भरी एक रैन मिले।
लम्बे दौर के बुरे दौर में,
न जाने किस तरहा रहते हैं।
व्यवधान अनेकों जीवन में,
रह-रह कर उपजा करते हैं।

सिद्धार्थ गोरखपुरी - गोरखपुर (उत्तर प्रदेश)

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