दुनिया की इस भीड़ में इतनी मग्न कि
ख़ुद को समझना भूल गई
ख़ुद क्यों हूँ?
क्या हूँ?
हूँ भी या नहीं?
ख़ुद को निरखना भूल गई।
एक दिन यूँ ही समय मिला
न दुनिया थी
न घर था
न था परिवार
बस मैं मग्न थी
पर कुछ उदास भी
एकांतवास, मैं और बस मैं।
कुछ ख़ुशियों के पल याद आए
कुछ दुःख की घड़िया याद की
बीते वक्त में मैं क्या थी
उसकी तुलना आज से की
हर कड़ी को कड़ी के साथ
जोड़ती रही
मैं एकांतवास में।
बीता पल-पल
खाली लग रहा था,
आँखें भरी थीं आँसुओं की धारों से
इस एकांतवास ने
मुझे अहसास दिला दिया था
जीवन भी तो मेरा एक ही था,
क्यों औरों के लिए तबाह की?
उस एकात में सन्नाटा था
साथ ही हिचकियों का शोर था
वर्तमान की डोर पकड़
अतीत के मैं छोर चली
एकांत में बैठे हुए
इस ओर से उस ओर चली
मैं और मेरा एकांतवास।
अवनीत कौर 'दीपाली सोढ़ी' - गुवाहाटी (असम)