दिसंबर - कविता - प्रियंका चौधरी परलीका

दिसंबर 
सरपट भाग रहा है
अपनी मंज़िल की तरफ़
मैं रोकना चाहती हूँ
आवाज़ देना चाहती हूँ
कुछ दिन और बिताना चाहती हूँ
फिर भी वो 
जाना चाहता है।
दिसंबर मेरे हाथ से
छूटता जा रहा है
जैसे
छूटता हैं
किसी प्रेमिका के हाथ से
प्रेमी का हाथ 
किसी रोज़ 
अंतिम मुलाक़ात के बाद
अपने प्रेमी को 
स्टेशन छोड़ने आई लड़की 
कस कर पकड़े रखती है 
अपने प्रेमी का हाथ।

तेज़ी से दौड़ती 
ट्रेन 
छूटा लेती है 
प्रेमी का हाथ 
लड़की के हाथ से।
ट्रेन की रफ़्तार के आगे 
लड़की के हाथ की 
मज़बूती 
कमज़ोर पड़ जाती है।
लड़की को 
छोड़ना पड़ता है
प्रेमी का हाथ 
वक्त का तक़ाज़ा देखकर।
उसे पता होता हैं
अगले पल
इस हाथ में 
किसी और का हाथ होगा 
ठिक 
उसी तरह
दिसंबर 
सबकुछ जानते हुए 
की
अगले पल 
उसकी जगह
कोई और होगा 
भाग रहा है।

किसी के लिए 
शुभ 
किसी के लिए अशुभ
सब के अपने अपने क़िस्से होंगे।
कोई इसे याद रखेगा 
कोई भूल जाएगा।

पर मैं 
इस शुभ, अशुभ
से दूर 
रोकना चाहती हूँ
दिसंबर को 
कुछ दिन और 
करना चाहती हूँ
गुफ़्तगू 
जी-भर कर।

प्रियंका चौधरी परलीका - नोहर, हनुमानगढ़ (राजस्थान)

Instagram पर जुड़ें



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos