ग़लतफ़हमी - गीत - संजय राजभर 'समित'

सुन रे! सखी कैसे बताऊँ?
बैठी हूँ मैं उलझन में। 
दिन तो कहा-सुनी में बीता,
रात कटी है अनबन में। 

कैसे करूँ चैटिंग किसी से,
रोज़-रोज़ शक करता है।
भौहें ताने अपशब्दों से,
तन-मन आहत रखता है।
नाहक रार ग़लतफ़हमी है,
मैं रहती हूँ वेदन में।
दिन तो कहा-सुनी में बीता,
रात कटी है अनबन में। 

सास-ननद जी ताना मारे,
देवर आँख दिखावे रे!,
मैं हूँ एक पराई औरत,
सारे रौब दिखावे रे! 
रात पिया से करूँ निहोरा,
पर झिड़कते किस चुभन में, 
दिन तो कहा-सुनी में बीता,
रात कटी है अनबन में। 

धान की रोपाई में थकी,
चूल्हा चौका करती हूँ।
आराम मिले आलिंगन हो,
पिया से चाह रखती हूँ। 
मुँह फेर के वो सोया रहा,
मैं जगी रही रूदन में।
दिन तो कहा-सुनी में बीता,
रात कटी है अनबन में। 

संजय राजभर 'समित' - वाराणसी (उत्तर प्रदेश)

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