नयी परम्परा की खोज - पुस्तक समीक्षा - विमल कुमार प्रभाकर

पुस्तक - नयी परम्परा की खोज
लेखक - डॉ॰ शिव कुमार यादव
समीक्षक - विमल कुमार प्रभाकर
प्रकाशक - लोकभारती प्रकाशन, प्रयागराज
प्रकाशन वर्ष - 2021

'नयी परम्परा की खोज' आलोचना पुस्तक में इस दौर की रचनाशीलता का मूल्यांकन किया गया है। इसके साथ-साथ परम्परा के कुछ अंशो का समसामयिक पुनर्मूल्यांकन किया गया है। इस आलोचना पुस्तक में इक्कीसवीं सदी की कविता के माध्यम से अपने समय और समाज की बहुत सारी बदलती हुई चित्तवृत्तियों को पकड़ने का सार्थक प्रयास है। नयी परम्परा की खोज में रचना की अर्थवत्ता के साथ-साथ उसकी सार्थकता की खोज और पहचान की गई है। इसमें परम्परा की प्रतिध्वनियाँ हैं और अपने समय तथा समाज की वास्तविकताओं, समस्याओं तथा आकांक्षाओं के प्रतिबिम्ब का जीवंत वर्णन है। महत्वपूर्ण कवियों की कविताओं का नई दृष्टि और नव मानकों के साथ सूक्ष्म अन्वेषण किया गया है। 

समसामायिक युगबोध के माध्यम से प्रतिमान ग्रहण करने का प्रयास किया गया है।
इस पुस्तक में परम्परा और आधुनिकता का सुन्दर समन्वय देखने को मिलता है। शिव कुमार यादव की आलोचना दृष्टि और सामाजिक जीवन दृष्टि प्रगतिशील है। कविताओं के माध्यम से सम्पूर्ण भारतीय समाज का विश्लेषण करते हैं। पहली ही आलोचना पुस्तक इतनी प्रौढ़ है तब मैं कह सकता हूँ शिव कुमार यादव तत्वाभिनिवेषी आलोचक हैं। 
स्वयं लेखक नें लिखा है- "जीवन के समान खोज भी एक सास्वत प्रक्रिया है। जैसे-जैसे समय और जीवन बदलता है वैसे-वैसे साहित्य की प्राणधारा भी बदलती है। शरीर भले ही वही रहे पर प्राणधारा बदल जाती है। इस बदलाव के नएपन को पकड़ना ही नयी परम्परा की खोज है। यह पुस्तक किसी एक व्यक्ति के माध्यम से बदलती हुई परम्परा को रेखांकित करने का उपक्रम नहीं है। इसमें इक्कीसवीं सदी के काव्य के माध्यम से अपने समय और समाज की बदलती हुई चित्तवृत्तियों को पकड़ने का एक अनूठा प्रयास है।" 

'नयी परम्परा की खोज' में समकालीन यथार्थ को उद्घाटित करने की कोशिश की गई है। शब्द और अर्थ के सौन्दर्यबोध की पकड़ बहुत ही शानदार है। इसमें जनतन्त्र की समस्याओं को बहुत संजीदगी से समझा जा सकता है। अपने समय की कविता को लेकर अपनी परम्परा का विस्तार करना अत्यन्त सराहनीय है। समकालीन युगबोध को बख़ूबी समझते हुए शिव कुमार यादव ने हिन्दी आलोचना का विस्तार किया है। हिन्दी आलोचना के शिखर पुरुष नामवर सिंह के बाद नई पीढ़ी में शिव कुमार यादव का आलोचना में किया गया प्रयास सराहनीय है। मैं इस आलोचना पुस्तक को हिन्दी साहित्य की महत्वपूर्ण उपलब्धि मानता हूँ। 

इसमें रचनाशीलता का मूल्यांकन करने वाली विचारधारात्मक अन्तर्दृष्टि एवं आलोचनात्मक विवेक समाहित है, जो विचार के क्षेत्र में दुर्लभ होता जा रहा है।
प्रदूषण प्रतिकार इक्कीसवीं सदी की मुख्य चिंता है। शिव कुमार यादव इस समय को 'प्रदूषण प्रतिकार युग' कहते हैं। लेखक ने कहा है- "जब मनुष्य की प्रकृति प्रदूषित हो जाएगी तो उसकी सोच और समझ का प्रदूषित होना तय है।" 

युवा आलोचक शिव कुमार यादव का कहना है कि- "प्रदूषण प्रतिकार युग कहने का आशय यह नहीं समझना चाहिए कि इस युग में प्रकाशित सभी रचनाएँ प्रदूषित हैं या प्रदूषण का शिकार हैं, या कि मानसिक प्रदूषण की उत्पत्ति हैं, या कि स्तरविहीन और सतही हैं, बल्कि सृष्टि के 'प्रकृति प्रदूषण' और मनुष्य के 'मानसिक प्रदूषण' के ख़िलाफ़ सख्त विद्रोह का महावृतान्त हैं, जो एक तरफ़ इस प्रदूषण से मुक्ति चाहती हैं तो दूसरी तरफ़ मनुष्य को मनुष्यता के आलोक में जीवन जीने की पक्षधरता करती हैं।" 
समकालीन समय में व्याप्त समस्याओं का और मनुष्य की बदलती हुई मनोवृत्ति की चिंता की गई है।

महाप्राण सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' की प्रसिद्ध कविता 'राम की शक्तिपूजा' का मूल्यांकन युगबोध के अनुरुप किया है। साथ ही 'अज्ञेय' की 'असाध्यवीणा' कविता के विषय में कहते हैं- "यह जीवन की वीणा तभी बजेगी जब हम अपने-आपको उसके (वीणा के) प्रति न्योछावर कर दें या दूसरे शब्दों में यूँ कहें कि मनुष्य को सफलता तभी मिल सकती है जब वह अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए स्वयं को तन, मन व धन से न्योछावर कर दे।" 
शिव कुमार यादव ने आलोचना को जन संवाद का हिस्सा बनाया, ये उल्लेखनीय है।

'राम की शक्तिपूजा' का मूल्यांकन करते हुए वर्तमान समय की समस्याओं से कैसे लड़ा जाए उसका रास्ता बताते हैं। निराला की कविता में परिवर्तन की ताक़त है। 
शिव कुमार यादव निराला की 'राम की शक्तिपूजा' के माध्यम से कहते हैं- "निराला जैसे प्रतिबद्ध रचनाकार योद्धा की कविताओं के क्रान्तिधर्मी कणों को बटोरकर इस 'अमानिशा' समय के ख़िलाफ़ 'शक्ति के विद्युत कणों' की तरह इस्तेमाल करने का निहायत गम्भीर समय है।" 

तोड़ती पत्थर कविता में श्रम के सौन्दर्य का यथार्थ चित्रण करते हैं। नारी मुक्ति की बात करते हैं। जो स्त्री पत्थर तोड़ रही है उसके विषय में लेखक ने कहा है- "यह कोई समान्य पत्थर नही है, जिसे वह स्त्री तोड़ रही है। यह एक ऐसा सामन्ती, पुरुषवर्चस्ववादी पत्थर है, जो सदियों से स्त्री का दमन-शोषण करता चला आ रहा है।"
तोड़ती पत्थर की व्याख्या जिस प्रकार शिव कुमार यादव ने की है वह बहुत महत्वपूर्ण है। आज भी स्त्री पूरी तरह से स्वतन्त्र नही है। शिव कुमार यादव अपनी आलोचना पुस्तक के माध्यम से स्त्री मुक्ति का आख्यान रचते हैं। साहित्य और समाज को केन्द्र में रखते हैं। मैं इसे सार्थक आलोचना मानता हूँ।

सुदामा पाण्डेय 'धूमिल' की कविताओं के माध्यम से समकालीन समय का विश्लेषण विचारणीय व चिन्तनपरक है। धूमिल की कविताओं के माध्यम से वर्तमान के लोकतन्त्र का पर्दाफ़ाश करते हैं। 
"भारत एक ऐसा लोकतन्त्र है जहाँ हमेशा योजनाओं की बाढ़ आती रहती है, पर इससे न तो धरती का ताप कम होता है, न ही फ़सलों को कोई लाभ होता है। योजनाओं की आय काग़ज़ों में ही सिमटकर रह जाती है।" 
ये बात कहने का साहस सबके पास नही है। धारा के विरूद्ध तैरने का साहस सबके पास नही होता है। आज के समय की यही सच्चाई है जिसे युवा आलोचक शिव कुमार यादव नें बड़ी बेबाकी से लिखा है। 

आगे लिखते हैं- "जैसे-जैसे भारतीय राजनीति प्रदूषित होती जाएगी वैसे-वैसे धूमिल और अधिक प्रासंगिक होते चले जाएँगे। क्योंकि इसमें विवेक, तर्क और जागरुकता की ऐसी आँच है जो हर राजनीतिक गन्दगी को जलाकर राख कर देने की क्षमता रखती है।"

धूमिल की कविता 'पटकथा' का मूल्यांकन समसामायिक है। धूमिल की कविता जनता का स्वर है, इससे जनता को ताक़त मिलती है। 'पटकथा' का बहुआयामी विश्लेषण आपने किया है।

प्रगतिशील हिन्दी कविता के कवि त्रिलोचन शास्त्री पर तुलसीदास का प्रभाव किस तरह से है इसे रेखांकित करने का सार्थक प्रयास किया है। इससे शास्त्री जी को आसानी से समझा जा सकता है।
त्रिलोचन शास्त्री जी के विषय में शिव कुमार यादव ने बहुत सही कहा है- "उनकी लोकभाषा, लोक चित्र के साथ-साथ संवेदना का लोकवादी स्वरूप मानवता की अद्भुत मिसाल प्रस्तुत करता है। वे गहरे लोकानुरागी कवि हैं इसलिए उनकी दृष्टि का प्रसार इतना व्यापक है कि पूरा वसुधैव ही उनका कुटुम्ब बन जाता है।" 

केदारनाथ सिंह के काव्य का विस्तृत विवेचन आपने किया है। इससे केदारनाथ सिंह के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की मुकम्मल जानकारी मिलती है। केदारनाथ सिंह की कविताओं की उपज कैसे होती है, इस भावभूमि का शानदार अन्वेषण किया गया है। गाँव का परिवेश और भोजपुरी लोक संस्कृति केदार जी कविताओं में भरपूर मौजूद है। ये आपकी आलोचना से पता चलता है। 
"भोजपुरी संस्कृति ही उनकी कविताओं का जीवद्रव्य है जहाँ से उनकी कविताएँ अपना आकार ग्रहण करती हैं।"

केदारनाथ सिंह की कविताओं के विभिन्न पक्षों को आपने सामने रखा है। केदार जी के सम्पूर्ण साहित्य को समझने में आपका आलोचनात्मक विश्लेषण सार्थक है।
"यह हमारे युग का कड़वा सत्य है कि मनुष्य को जितना अधिक डर अपने शत्रुओं से नहीं लग रहा है, उतना अपने मित्रों से। विश्वास का संकट इस सदी का सबसे बड़ा संकट बनकर हमारे सामने मौजूद है।" 

समकालीन हिन्दी साहित्य में मदन कश्यप का विशेष स्थान है। मदन कश्यप की कविताओं को आपके लेख के माध्यम से समझा जा सकता है।
शिव कुमार यादव ने कहा- "मदन कश्यप प्रेम, प्रतिरोध और प्रतिक्रिया के कवि हैं।"
"वर्तमान समय की सच्ची अनुभूतियों को पकड़ना हो तो मदन कश्यप की कविताएँ पढ़नी पड़ेगी।"  

श्रीप्रकाश शुक्ल के काव्य का मूल्यांकन बहुत बढ़िया आपने किया है। इनके साहित्य को समझने में आपकी आलोचना सार्थक भूमिका निभाती है। 
"उनकी कविताएँ सतरंगे पंखोवाली हैं, जिसमें जीवन के, समाज के, संस्कृति के, प्रकृति के, राजनीति के अनेकानेक रंग विद्यमान हैं, जो हमारी शुष्क होती संवेदना में नया रंग, नया जीवन भरती हैं।" 

सुभाष राय के काव्य संग्रह 'सलीब पर सच' का मूल्यांकन करते समय आपने ठीक ही कहा है। 
"शब्दों को जितनी बार घायल करोगे, अभिव्यक्ति की आज़ादी पर जितनी बार पहरा लगाओगे शब्द उतनी ही मज़बूती के साथ तुम्हारी क़ब्र खोदेंगे।"

'नयी परम्परा की खोज' में बदलते हुए पर्यावरण और संस्कृति आदि के साथ-साथ दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, आदिवासी विमर्श से जुड़े साहित्य का मूल्यांकन उल्लेखनीय है। 

'नयी परम्परा की खोज' पुस्तक में विभिन्न कवियों की कविताओं के माध्यम से समकालीन आलोचना का विस्तृत मूल्यांकन किया गया है। समकालीन कविताओं के माध्यम से आलोचना की नई जमीन तैयार करना बेहद सराहनीय है। इस पुस्तक में गजानन माधव 'मुक्तिबोध', रमाशंकर यादव 'विद्रोही', अरुण कमल, लीलाधर मण्डलोई, जितेन्द्र श्रीवास्तव, विवेक निराला, ज्योति चावला, कौशल किशोर, मनीषा झा, नीलेश रघुवंशी, रमेश प्रजापति, हेमन्त कुकरेती, एकान्त श्रीवास्तव आदि कवियों के काव्य का विश्लेषण समसामायिक रूप से किया गया है।
हिन्दी कविता में हुए परिवर्तन को शानदार तरीक़े से रेखांकित किया गया है।
   
नयी परम्परा की खोज आलोचना पुस्तक की भाषा में ग़ज़ब का प्रवाह है। इसकी भाषा वस्तुनिष्ठ, तर्कसंगत, तथ्यसम्मत, संवेद्य विचार प्रधान है। शुरू से अन्त तक भाषा सरल तथा प्रभावपूर्ण है। आपकी आलोचना में व्यंग्य का प्रयोग हुआ है, इससे आलोचना की भाषा में जान आ गई है। 
आपने आलोचना की भाषा को नई ताज़गी और सूक्ष्मता देने के साथ-साथ उसे सामाजिक संवाद का हिस्सा बनाया है। आलोचना शैली रुचिकर है। मेरा मानना है कि श्रेष्ठ आलोचना का निर्माण निराशा से नही हो सकता है। शिव कुमार यादव को गंम्भीर और विचारोत्तेजक आलोचना के लिए जाना जाता है। यह प्रौढ़ आलोचना पुस्तक है। इस आलोचना पुस्तक का कलेवर बहुत विस्तृत है। हिन्दी साहित्य के छायावाद से होते हुए समकालीन काव्य पर विचार किया गया है। 
शिव कुमार यादव के यहाँ जीवन के अनुभवों और छवियों की जो बहुलता है, वह सबसे सशक्त और आलोचनात्मक ढंग से उनकी उनकी भाषा में प्रकट होती है।  
साहित्य और आलोचना के हर पाठक के लिए शिव कुमार यादव की आलोचना पुस्तक 'नयी परम्परा की खोज' एक ज़रूरी और संग्रहणीय पुस्तक है।

समीक्षक - विमल कुमार 'प्रभाकर' - जनपद, फतेहपुर (उत्तर प्रदेश)

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