रौशनी घायल पड़ी है आजकल - ग़ज़ल - समीर द्विवेदी नितान्त

अरकान : फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
तक़ती : 2122  2122  212

रौशनी घायल पड़ी है आजकल,
हर नज़र में बेबसी है आजकल।

नाख़ुदा तो साफ़ बच जाता है दोस्त,
सिर्फ़ कश्ती डूबती है आजकल।

स्वार्थ के क़दमों तले इन्सानियत,
राह में कुचली पड़ी है आजकल।

मौत का बाज़ार मँहगा है ज़रूर,
ज़िंदगी सस्ती हुई है आजकल।

कोई क्या बदलेगा अब हालात को,
सबको अपनी ही पड़ी है आजकल।

कौन सुनता है किसी की अब 'नितान्त',
रंगे दुनिया और ही है आजकल।

समीर द्विवेदी नितान्त - कन्नौज (उत्तर प्रदेश)

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