मन - कविता - सूर्य मणि दूबे 'सूर्य'

धरा का धरातल धरा ही रहा,
मन आसमानी पवन संग चला।
बादलों की हवाई सवारी लिए,
बेअन्तक अनन्तक गगन तक चला।
निरन्तर खग वृंद विचरते रहे,
कुछ तृण धूल भी संग चलते रहे।
मन हवाई बिना पंख उडता रहा,
कुछ संघनित सूक्ष्म बूँदों में घुलता रहा।
मन बरसा घुमडते मेघों के संग,
चमकते तड़ित बचता डरता रहा।
फिर बरसा सतरंगी फूलों के तन,
मन महका तितलियों में मंडरता रहा।
उपवनों में पुष्प पराग पी कर,
नदियों किनारे तक उड़ चला।
बहा मन लहरों में मचलता रहा,
कोसों तक चलकर जलधर मिला।
मन प्यासा अभिलाषा से घिरा ही रहा,
फिर धरा से चला था धरा ही गया।
मन समझा सुंदर है सारा जहाँ,
सूर्य ख़ुशियों का स्वागत करो हर सुबह।।

सूर्य मणि दूबे 'सूर्य' - गोण्डा (उत्तर प्रदेश)

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