मानवता का पतन - कविता - आशीष कुमार

शर्मसार हुई माँ वसुंधरा
पाप पुण्य से आगे बढ़ा,
क्षत-विक्षत हुआ कलेजा
आँचल होने लगा मैला।

कामी लोभी क्रोधी घमंडी
एक चेहरे पर कितने मुखौटे,
चोरी हत्या लूटपाट
काम तेरे कितने खोटे।

संवेदना पड़ी मृतप्राय
कुटिल स्वार्थ हुआ महाकाय,
लुका-छिपी का खेल ख़त्म
घर-घर अब इसका व्यवसाय।

विवश अबला की चीख़-पुकार
भरी सड़क पर दंगा-फ़साद,
मासूमों का होता हरण
मौन साधे खड़ा संसार।

असह्य विकट माँ का संताप
दुर्गति देख करती विलाप,
चराचर जगत पर तुम अभिशाप
बहाते घड़ियाली आँसू यह कैसा पश्चाताप।

मन का मैल जो धोते तुम
मैला आँचल ना होता माँ का,
आशीष दिया था बुद्धि विवेक का
स्वविवेक पर अब रोता विधाता।

आशीष कुमार - रोहतास (बिहार)

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