तन्हा - नज़्म - अभिषेक द्विवेदी 'नीरज'

चुप-चुप सा रहता हूँ,
तन्हाई में जीता हूँ,
ज़िंदगी बसर हो रही है
यूँ ही तन्हा,
फिर भी रात सपनों में
खोया रहता हूँ।

ज़माना रूप बदलता रहा
मौसम की तरह,
लेकिन ख़्वाबों में
तेरे साथ जिया करता हूँ।

कैसे बयाँ करूँ
यादों के बादल को,
आँखों के आँगन में
बरसात करता हूँ।

हँसते हुए तुम मिलते हो
ग़ैरों से उधर,
इधर मैं
तन्हाई के आग में जलता हूँ।

लोग पुछतें है कौन हैं वों
जो तेरी ये हालत कर गया,
दिल में तेरा नाम लेकर
मैं सिर्फ़ मुस्कुरा देता हूँ।

आख़िर कैसे खत्म करूं
तुझसे रिश्ता,
जिसे महसूस करने से ही
मैं दुनिया भुल जाता हूँ।

आज फिर तेरी याद आई
बारिश को देखकर,
दिल पे जोर न रहा
अपनी बेबसी पर रोता हूँ।

मुझे शौक़ नहीं अपने जज़्बातों को
सरेआम लिखने का,
मगर क्या करूँ…
अब इसी के ज़रिए
तुझसे बात करता हूँ।

तुम छोड़ गईं
मुझे यक़ीन नहीं,
चौखट पर खड़ा
आज भी
तेरा इंतज़ार करता हूँ।

अभिषेक द्विवेदी 'नीरज' - गोपालगंज (बिहार)

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