हिंदी मेरी कुंकुम चंदन - गीत - शिव शरण सिंह चौहान 'अंशुमाली'

भाषा अक्षत का पावन कण
हिंदी मेरी कुंकुम चंदन।
बनो सारथी, बढ़े विश्व-पथ
हिंदी भाषा का स्यन्दन।
आखर-आखर कालजयी हो
करता रहे प्रीति वर्षण।
लिखो गीतिका, पद रच डालो
शंखनाद से परिवर्तन।
प्रिय भाषा के आख्यानों से
अखिल विश्व में आकर्षण।

शब्द-शब्द की केसर क्यारी
फूले जैसे नंदन बन।

मातृभाष का तूर्य फूँकना
हो मानस अनुदिन रंजन।
प्रहसित मुखरित अग-जग सारा
वर्णमाल द्युतिमय कंचन।
हिंदी की प्रांजल लहरों से
टूटे सारे तटबंधन।
आशा-लता खिले कुछ ऐसे
भाषा गूँजे गगनांगन।

माता के माथे की बिंदिया
चमके जैसे हीरक कंकन।

ढाई आखर प्रेम पढ़ाए
कबिरा पद मीरा वंदन।
जायस की जायसी चहकती
नागमती करुणा क्रंदन।
सूरदास की वेणु बज रही
कृष्ण राधिका वृन्दावन।
रामचरित तुलसी की पढ़ते
बैठे राम-सिया आंगन।

मातृभूमि की भाषा हिन्दी
करो 'अंशुमाली' अभ्यर्थन।

शिव शरण सिंह चौहान 'अंशुमाली' - फतेहपुर (उत्तर प्रदेश)

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