शहीदों के परिवारों के प्रति दायित्व - लेख - सुधीर श्रीवास्तव

बहुत ही गंभीर और चिंतन का विषय है कि शहीद परिवारों के प्रति हम, हमारा समाज और हमारी सरकारें कितना दायित्व बोध महसूस करती हैं या महज़ औपचारिकता की कर्तव्यश्री भर निभाकर पल्ला झाड़कर सुकून का अहसास करते हैं। इस गंभीर और संवेदनशील विषय पर ज़रूरत है राष्ट्र, समाज और नागरिक स्तर पर स्वयं की वैचारिकी को विस्तृत करने, मन के पटों को पूरी तरह खोलने की। तभी हम शहीद परिवारों की वास्तविक वस्तु स्थिति का आँकलन कर पाएँगे, शायद तब ही हमें अपने वास्तविक कर्तव्य की गँभीरता का अहसास हो।

सर्वविदित है कि आज़ादी पाने में अनगिनत रणबांकुरों ने अपनी आहुतियाँ दे डाली, जिनमें बहुत से ऐसे भी हैं जो आज भी अज्ञात बने हैं, मगर उनके वंशजों के लिए पीढ़ी दर पीढ़ी गर्व का कारण भी बने हुए हैं।
आज उसी आज़ादी को अक्षुण्य रखने का गुरुतर दायित्व हमारे जाँबाज़ वीर सैनिक निभा रहे हैं। देश की सुरक्षा के साथ अन्य गँभीर और असामान्य परिस्थितियों में भी हर पल अपनी जान की बाज़ी लगाए रहते हैं। जिसमें बहुत से हमारे वीर जाँबाज़ सैनिक शहीद भी होते रहते हैं। उन शहीद परिवारों की वास्तव में ज़िम्मेदारी देश के हर नागरिक, शासन प्रशासन, तंत्र पर होना चाहिए।
लेकिन अफ़सोस यह है कि आज भी बहुत से शहीद परिवार उपेक्षा और अभावों का दंश झेलने के अलावा घोषित सुविधाओं को भी न पाने अथवा कानूनी दाँवपेंच में उलझाकर हताश, निराश कर उपेक्षापूर्ण बर्ताव, गुमनामी, पारिवारिक, राजनैतिक, आपसी विवाद और निजी दुश्मनी का शिकार भी होते आ रहे हैं।

आज भी बहुत से शहीद परिवार मुफ़लिसी का शिकार हैं। तमाम घोषणाएँ महज़ घोषणा बन लालफ़ीताशाही की भेंट चढ़ उनकी लाचारी पर नमक मिर्च लगाकर अट्टहास कर रही हैं। अथवा राजनीतिक वाहवाही का सबब बनी मुँह चिढ़ा रही हैं। अब इसे विडंबना नहीं तो और क्या कहेंगे कि जाने कितने ऐसे मामले भी आए दिन अख़बारी सुर्खियाँ बने, जब सैनिकों को सेवानिवृत्ति के बाद/शहीद परिवार को अपने देयकों को पाने में सरकारी कार्य संस्कृति ने उन्हें ख़ून के आँसू रुला दिए हैं, भ्रष्ट तंत्र ने उनके परिजनों का भविष्य चौपट कर दिया।

समय के साथ काफ़ी कुछ बदलाव ज़रूर आया है/आ रहा है मगर अभी भी बहुत कुछ किया जाना शेष है। यह विडंबना ही है कि बहुत बार हमारे सैनिक पुलिसिया उत्पीड़न का शिकार विद्वेषवश अथवा प्रतिद्वंद्वी के रसूख़ वश भी होते हैं, तो बहुत बार उनके परिवारों को उनकी अनुपस्थिति में उपेक्षित, अपमानित और विभिन्न स्तरों पर अन्याय भी सहना पड़ता है।

जो सैनिक देश, राष्ट्र, समाज की सेवा सुरक्षा में अपनी जान गँवाकर शहीद हो जाता है, उसके परिवार के प्रति हम सबकी, समाज, राष्ट्र और शासन, प्रशासन का नैतिक और मानवीय दायित्व है कि शहीद परिवारों को हर स्तर पर सहयोग, संरक्षण और सुरक्षा प्रदान की जाए। उसके लिए ऐसा तंत्र विकसित किया जाना चाहिए, जहाँ वे अपनी बात आसानी से पहुँचा सके और उनका जिस भी स्तर पर जल्द से जल्द समाधान हो सके, उस तंत्र की ज़िम्मेदारी तय होनी चाहिए, न कि शहीद परिवार को बेवजह भागदौड़ कराने, उपेक्षित और असहाय महसूस कराकर मायूस होकर अपना दुर्भाग्य मानने के लिए छोड़ देना चाहिए। शहीदों की क़ुर्बानियों को जीवंत रखने की व्यवस्था हो, ताकि नई पीढ़ी प्रेरणा ले सके और राष्ट्र के प्रति समर्पित जज़्बा विकसित करने के प्रति जागृति की मशाल प्रज्जवलित कर गौरव महसूस कर सके, साथ ही शहीद परिवार का सर्वोच्च सम्मान, सुविधाएँ, सुरक्षा और स्वीकार्य संस्कृति का प्रभावी तंत्र मज़बूत किया जाना चाहिए। प्रत्येक नागरिक के लिए शहीद परिवारों के प्रति सम्मान, सदभाव और राष्ट्र के प्रति उनकी शहादत के लिए अनिवार्य आचरण की संस्कृति की नींव को मज़बूत किया जाए। यही शहीदों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी और राष्ट्र के प्रति हमारा नैतिक दायित्व भी यही है। क्योंकि जब एक सैनिक शहीद होता है तब देश जहाँ अपना एक जाँबाज़ सैनिक खोता तो वहीं एक बाप अपना बेटा, एक बेटा बेटी अपना पिता, एक पत्नी अपना सुहाग और एक परिवार अपना सहारा भी खोता है।

अब हम सबको यह सोचना है कि एक सैनिक ने माँ भारती की आन बान शान की ख़ातिर अपनी आहुति दे दी, मगर  क्या हम एक नागरिक, समाज और शासन/प्रशासन के रुप में अपने दायित्व का वास्तव में निर्वहन कर रहे हैं? विचार करने की हम सबको ही बहुत ज़रूरत है।

सुधीर श्रीवास्तव - बड़गाँव, गोण्डा (उत्तर प्रदेश)

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