साड़ी - कविता - आराधना प्रियदर्शनी

एक ख़ुशी का संचार है,
अपना सा एक व्यवहार है,
एक लहजा है संस्कार है,
एक स्त्री का शृंगार है।

संभावनाओं की उत्पत्ति है,
भावनाओं की आकृति है,
कहीं रिवाजों की सहेली, 
तो कहीं भारत की संस्कृति है।

चंचल मृदुल नहरों की तरह,
सौंदर्य को एक आभार है,
इनसे जुडी श्रद्धा और साधना,
ख़ुशियों का जैसे त्यौहार है।

ज्ञान तो अपने अंदर है,
अपना ही आत्मसत्कार है,
वस्त्र छवि को निखारता है, 
ना की एकमात्र सरोकार है।

दृष्टिकोण है अपना अपना,
ना कुछ भी अलभ्य है,
साड़ी सिर्फ़ पोशाक नहीं,
एक किरदार अनोखी सभ्य है।

सुंदरता की प्रतिमा अनुपम,
मनचला मनमाना सा बादल है, 
कभी धर्म कभी मानवता का प्रतीक 
सहज लहराता ममता का आँचल है।

पोशाक से हम प्राचीन और नवीन नहीं होते,
ये तो बस एक छलावा है,
साड़ी नारी का सम्मान है,
ना की एकमात्र पहनावा है।

आराधना प्रियदर्शनी - हज़ारीबाग (झारखंड)

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