समय - कविता - रमेश चंद्र वाजपेयी

कब कौन चला जाए
न जाने किसी बहाने से, 
इस कोरोना काल में 
जवान अधेड़ और सयाने से। 
असीम दुःख लगता है
जब अपना ही अपनों को 
छोड़ कर पराया सा बन जाता है, 
लगता है भगवान बड़ा निष्ठुर है 
ऊपर वाला ऐसा क्यों करता है। 
धन दौलत मान मर्यादा 
सब धरी की धरी रह जाती है, 
फिर भी मानव तेरा मेरा करता है
लोभ लालच माया भाती है। 
ख़ूब समझाओ सबकी 
समझ से परे है,
कोई मज़ाक समझते हैं 
तो कोई दकियानूसी मानता है। 
सोचो समझो और समय की क़ीमत पहचानो
नहीं तो बहुत पीछे रह जाओगे, 
समय की अनसुनी करोगे 
तो हाथ मलते रह जाओगे। 
संस्कार और समय का रखो ख़्याल,
तो रहोगे माला माल। 
समय के साथ चलोगे तो 
सब काम बनेंगे ठिकाने से,
कब कौन चला जाए
न जाने किस बहाने से। 

रमेश चंद्र वाजपेयी - करैरा, शिवपुरी (मध्य प्रदेश)

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