परी - कविता - निर्मला सिन्हा

वो परियों की दुनिया और उस परीलोक की 
शहज़ादी जैसी मेरी बिटिया।
ख़्यालों के उपवन में बेख़ौफ़ 
कुलाँचे मारता उसके मन का मृग...
बावरे पंछी सा आसमाँ को छूती 
हज़ारों हसरतें उसकी।
ज़िंदगी जाने कब उसे स्वपनलोक से निकालकर 
इन दुनियावी हक़ीक़तों के 
भँवर जाल में उलझा दे।
ये सोच-सोच कर घबराए मन मेरा।
जब भी देखता हूँ अपनी नन्ही परी को 
मन करता है कि 
तारों को उसके बालों में लगा दूँ,
जुगनुओं को उसके आस-पास उड़ा दूँ।
तितलियों के पंख उसे लगा दूँ,
बना दूँ उसे एक सुन्दर सी परी।
नज़र ना लगे उसे 
इसलिए एक काला टीका लगा दूँ।

निर्मला सिन्हा - डोंगरगढ़ (छत्तीसगढ़)

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