कुछ कहना नहीं चाहता - कविता - प्रवीन 'पथिक'

अब मै कुछ कहना नहीं चाहता!
सुनना चाहता हूँ;
उस निस्तब्ध निशा को।
जिसके गहन अँधेरे में,
एक अजीब मासूमियत छिपी होती है।
सागर में उठती तरंगों को,
जिसकी कसक तरंगों के रूप में तरंगायित होती है।
नदियों के बहते जल की पीड़ा को,
जो समुद्र में मिलकर
अपना आस्तित्व खो देती है।
और
उन तमाम भूखी नंगी आँखों को,
जो सड़कों के किनारे
आने जाने वाले राहगीरों की आँखों में
आर्त निगाहों से देखती रहती हैं।
कारण
ईश्वर के सच्चे प्रतिमान का दर्शन,
होता है इन्ही गहन अँधेरे में।
नदियों के बहते जल में;
और भूखे नंगो की आँखों में;
एक अजीब कसमसाहट,
होती देख दुनिया के यथार्थता को।
तीव्र अंतर्विरोध, 
मन औ मस्तिष्क को झकझोर कर
कर देता चेतना शून्य।
इसे मानवता की नियति कहूँ!
या ईश्वर की विडंबना।
हर तरफ़ लोगो के मन में,
एक दूसरे के प्रति रोष, द्वेष, जातिगत वैमनस्य।
जो क्षुब्ध कर देता चित्त को।
लगता है ऐसे
जैसे प्रेम का स्थान घृणा ने,
आशा का निराशा ने,
प्रसन्नता का विषाद ने,
और ले लिया है मंगल का अमंगल ने।
घोर निराशा से भरा जीवन,
कब छटेगी ऐसी छटा!
कब मिलेगा लोगो का हृदय?
और मिटेगा मन का संताप।
यह प्रश्न;
कब तक प्रश्न बना रहेगा?
कब तक सोचने पर मजबूर करता रहेगा?
कोई ज्ञात नही;
दिखता कोई हल नहीं।

प्रवीन 'पथिक' - बलिया (उत्तर प्रदेश)

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