इंसान - कविता - निर्मला सिन्हा

सिर पर टोपी, माथे पर तिलक सबब पूछती है क्या?
ऐ सियासत जरा ये बता 
ये हवा मज़हब पूछती है क्या?
हैं यहाँ सब भगवान के ही बच्चे, दौड़ता सबमें एक ही रंग का ख़ून फिर क्यों कटते मरते हो आपस में? 
शैतान की पूजा करते हो क्या?
अगर कुछ करना ही है ज़िंदगी में तो संघर्ष करो।
अच्छा ये बताओ
अपनों को ख़ुश रखने के लिए मेहनत करते हो क्या?
नहीं करती कोई शिकायत हमसे ज़िंदगी, 
फिर क्यो शिकायत करते रहते हो अपनी ज़िंदगी से तुम?
लिया है इंसान का जन्म 
अपने हर कर्म के फल को यहीं भुगतोगे।
ये याद रखना तु है इंसान,
हम जहाँ रहते हैं वो धरती है,
तु धरतीपुत्र है।
यहाँ हर किसी का जन्म 
किसी मक़सद से होता है,
जिसने अपने जन्म का मक़सद ना समझा हो 
वह तो नासमझ ही रह गया।
ये याद रख कि अच्छे वक़्त की तलाश में 
अपनों को भी खोना पड़ता है,
बुरों के लिए अच्छा भी बनना पड़ता है,
नहीं मिलता यहाँ मुफ़्त कुछ भी, ज़िंदा रहने के लिए 
ऑक्सीजन भी ख़रीदना पड़ता है।
कर ले तु कुछ नेक काम,
इंसान का जन्म मिला है
इंसान बन जानवर या कसाई नहीं।

निर्मला सिन्हा - डोंगरगढ़ (छत्तीसगढ़)

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