ज़िंदगी - कविता - डॉ. ललिता यादव

ऐ ज़िंदगी तूने मुझे रुसवा करना छोड़ दिया,
क्योंकि मैंने तेरे रूखेपन से मुँह मोड़ लिया।

लोगों के बदलते रंग को देखकर हैरान नहीं हूँ,
सब इस बात से परेशान हैं कि मैं परेशान नहीं हूँ।

जो कुछ भी लोग कहते हैं चुपचाप सुन लेती हूँ,
मुझे जीना है यह सपना अपनेआप बुन लेती हूँ।

अपनों की चाह में सबके लिए जीने की कोशिश की मैंने,
अपनी ख़ुशियों का गला घोंट ख़ुद से रंजिश की मैंने।

जब तक वक़्त अच्छा रहा तो सब अपने ही रहे,
बदलते रंग के साथ सब बदलते ही रहे।

मुझे न अब किसी से कोई आशा न उम्मीद है,
न किसी से हार की या जीत की कोई ज़िद है।

जिस बात पर रोना है उस पर भी मुस्कुराऊँगी मैं,
हर हाल में ख़ुश रहकर तुझे दिखलाऊँगी मैं।

आज तक मैंने न किसी का कुछ बिगाड़ा है,
तुम्हें लौटाना ही होगा जो मैंने तुझ पर लुटाया है।

ज़िंदगी तुम जितने रंग मुझ पर लगाओगी,
हर बार तुम मुझे निखरा हुआ ही पाओगी।

इसलिए ज़िंदगी अब मुझ पर न तू वार कर,
बहुत संघर्ष किये है मैंने अब मुझको तू माफ़ कर।

डॉ. ललिता यादव - बिलासपुर (छत्तीसगढ़)

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