सूरज - कविता - डॉ. सरला सिंह "स्निग्धा"

दिनकर का मिलता है स्पर्श,
धरती खिल खिल है जाती।
आदित्य रश्मि की चादर से,
अनुराग रवि का सतत पाती।

सूरज की किरणें ये करतीं
जग का जीवन है जगमग।
धरती पर पलता है जीवन,
होता न कभी भी है डगमग। 
प्रभा बिना प्रभाकर के जीव,
जीवन ही भला कैसे लाती।
दिनकर का मिलता है स्पर्श,
धरती खिल खिल है जाती।

दिनकर से ही दिन है बनता,
अंधकार सब होता सब दूर।
काली रात ये भय दिखलाए,
दिवाकर करे घमंड सब चूर। 
तरणि अंशुमाली व भास्कर,
नाम अनेक धरा मन भाती। 
दिनकर का मिलता है स्पर्श,
धरती खिल खिल है जाती।

दिनेश तेज के सन्मुख कोई,
अँधियारा कहाँ टिक पाता।
रोज़ सवेरे आता अंशुमाली,
धरती से निभाता नित नाता।
सूरज के संग धरणि ये प्यारी,
प्रेम भरे नित गीत नव गाती।
दिनकर का मिलता है स्पर्श 
धरती खिल खिल है जाती।

डॉ. सरला सिंह "स्निग्धा" - दिल्ली

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