मैं शब्द हूँ,
दर्शन, ज्ञान, विज्ञान, योग का
संचयन और व्यक्त करने का माध्यम हूँ।
जहाँ-जहाँ जिस समूह ने
जिस-जिस रूप में रेखांकित किया,
वहाँ-वहाँ समझने योग्य,
मैं आवाज़ का
एक चिन्हित स्वरुप हूँ।
बिना हाथ पाँव के
बहुत तेज़ चलता हूँ,
हज़ारों मील दूर एक पल में
दूरसंचार से
पहुँच जाता हूँ।
कभी तीर सा
कभी दवा सा,
कभी हँसना
कभी रूठना,
कभी मंत्र
कभी श्राप,
भाँति-भाँति के मनोयोग में
समाहित हो जाता हूँ,
मैं उच्चरित हो जाता हूँ।
मैं आसमान से उतरा
अक्षरों के लड़ियों में पिरोकर
पाक-ए-क़ुरआन बना।
मैं कुरूक्षेत्र में
भगवान के मुख से निकला
तो गीता बना।
तत्वदर्शियों के विचार में बँध
समय-समय पर
देश काल के अनुरूप
मैं लोक मंत्र बना।
मैं जीव जगत का यंत्र बना।
संजय राजभर "समित" - वाराणसी (उत्तर प्रदेश)