पिता और उनका अक्स - कविता - डॉ. सत्यनारायण चौधरी

कहता नज़र आता है
जब हर एक शख़्स,
पिता से ही मिलते हैं तुम्हारे
नैन और नक़्श।
बार-बार नज़र आता है मुझमें,
मुझे पिता का ही अक्स।
मेरे पिता ही मेरे लिए हैं सर्वदाता,
उनसे बढ़कर कोई नहीं इस जग में त्राता।
मानता हूँ प्रथम गुरु होती है माता,
लेकिन मेरे लिए आप ही हो मेरे विधाता।
ऐसा है मेरा आपसे ये नाता,
जो चाहूँ वो सब कुछ पल में मैं पाता।
हो मेरे पिता, मैं इस पर ही इतराता,
तुम ही मेरा हौसला और शक्ति प्रदाता।
तुम हो तो ये जग मुझको है भाता।।
जो सीख आपकी
गाँठ बाँध ली होती,
क्या से क्या नहीं
मैं पल भर में कर जाता।
तुमने ही सिखाया है,
पैरों पर कैसे खड़ा हुआ जाता।
लाख मिलें भले ही मुझे गॉडफादर दुनिया में,
लेकिन आज भी,
तुम्हारे नाम से ही पहचाना हूँ जाता।
याद है मुझको आज भी,
वो दाहिने गाल पर चपत आपकी।
याद है आज भी,
जब प्यार से आपने पीठ पर दी थी जो थपकी।
कैसे भुला दूँ,
आपके काँधे लगकर ली हुई झपकी।
ख़ुशगवार हूँ मैं,
जो स्नेह की छाया मिल रही है आपकी।
आप भी तो ख़ुश हुए थे, 
जब पहन ली थी जूती, आपके नाप की।
भले ही माँ की गोद में,
महफ़ूज़ समझा है, अपने आपको।
जब क़ाबिल हुआ तब समझ पाया,
मैं आपके उस कठिन तप को।
चाहता हूँ आजीवन,
सर पर आपके वरद हस्त को।
एक अनमोल तोहफ़ा दिया है प्रभु ने,
जो बनाया है पिता मेरा आपको।
एक आप ही वो शख़्स हो,
जो चाहता है पीछे रह जाना।
अपने से आगे बढ़ने पर,
सीने से लगा लेना।
गर्व और ग़ुरूर मेरा रहोगे तुम सदा,
आदर्श अपना बनाकर पूजा है सदा।
यह उम्र कट जाएगी,
उऋण न हो पाऊँगा।
धन्य होगा जीवन मेरा,
जो आपके पदचिन्हों पर चल पाऊँगा।
चाहे ज़माने के लिए चले झूठ और सच।।

डॉ. सत्यनारायण चौधरी - जयपुर (राजस्थान)

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