अन्तर्ग्रंथियाँ - कविता - प्रवीन "पथिक"

अजीब मन: स्तिथि में हूँ आजकल!
धैर्य टूटता जा रहा आत्मविश्वास का;
लक्ष्य, विषम परिस्थितियों से हो रहा धूमिल;
अंतःकरण घोर निराशा से आबध्द;
विवेक क्षण प्रतिक्षण शून्यता के तरफ़ प्रवृत्त;
एक अज्ञात आशंसा से भयभीत;
अनमनस्यक सा;
सोचता हूँ, कि
कितने सपनें, कितनी उम्मीदें, कितनी आकांक्षाएँ
लगी है मेरे साथ।
गर पूरा न कर सका तो?
तो सारी अपेक्षाएँ;
काँच के टुकड़ों सा टूटकर;
सबके मानस पे छोड़ जाएँगी एक घाव।
जो होगा;
असाध्य, अमिट, अशेष।
आज तक का कोई गौरवशाली अतीत नहीं;
जिस पर गर्व किया जा सके।
स्मरण रखा जा सके।
मुझे,
हाँ मुझे ही!
इन सब भारों से दबता जा रहा हूँ;
घोर निराशा के गर्त में।
पहले परिजनों की झिड़की,
उत्पन्न करती थी मेरे रोष को।
पर!
आज उनका उमड़ता स्नेह,
भार मालूम पड़ता है मेरे अंत:स्थल पर।
ऐसा नहीं कि
विमुख हूँ या कर्तव्यच्युत,
अपने कर्तव्य बोध से।
सदैव मेरा लक्ष्य ही मेरे चक्षुओं के समक्ष,
रहा एक सीध रेखा में।
अनवरत...
तथापि, परिस्थितियाँ;
मेरे विचारों की गति को लताड़,
निर्बाध बढ़ती जा रही,
पाँव रख, मेरे वक्षस्थल पर।
मेरी भी कुछ कामनाएँ हैं;
सपनें हैं,
जिन्हें पूरा करना चाहता हूँ।
एक कीर्ति स्थापित करना चाहता हूँ; जो
पीढ़ी-दर-पीढ़ी सजीव रख सके मेरी स्मृतियों को।
खरा उतरना चाहता हूँ;
अपने शुभेक्षुओं के अपेक्षाओं पर।
जो मुझमें देखना चाहते हैं सदियों से।
जिसकी आस सुनहरे-स्वप्निल-सी,
अभिसिंचित रही उनकी आँखों में।
तत्पश्चात ही,
मेरी पीड़ा, मेरा अन्तर्द्वंद 
समाप्त होगा
पूर्णतः।

प्रवीन "पथिक" - बलिया (उत्तर प्रदेश)

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