अग्निपथ की दिशा - कविता - रामासुंदरम

धधकती ज्वाला में,
जल तलाश रहें हैं।
उजड़ते उपवन में,
पुष्प सँजो रहे हैं।

सुनहरा क्षितिज भी,
अब धधक रहा है।
अमृत के इस प्याले में,
कुकुरमुत्ते उग रहे हैं।

विचित्र सा युद्ध है यह,
कैसी यह विभीषिका है
लोग कहते हैं,
यह कुदरत का क़हर है।

किन्तु,
यहाँ तो
मर्म दारुण को टटोलते,
गिद्ध उड़ रहे हैं।

कहीं क्रूर लालसाएँ भी परिपक्व हों,
निरंतर मकड़ जाल बुन रही है,
इन्हीं के रक्तिम प्रांगण में,
निरीह काल कवलित हो रहे हैं।

यह काल विध्वंसकारी है,
हमारी  विघटनकारी प्रवृत्तियाँ ही है,
जो इन्हे हवा दे रहीं हैं,
संवेदनाओं को गौण समझ, 
वैभव की मरीचिका में
भाव शून्य हो,
भटक रहीं हैं।

आओ कुछ तलाशें....
मानवता के सैलाब कहे जाने वाले
इस डगर में
ख़ालिस इंसान खोजें,
कृत्रिम बन चुके इस बहके परिवेश में
गुलाब की चंद पंखुड़ियाँ ढूँढें।
बहते अश्रु थम पाएँ,
इसलिए ही सही
कोई बाँध ढूँढें।
निराशा की इस आपाधापी में
आशा के बीज सँजोए,
हर पल बहती
समय सरिता में
अपनी सार्थकता ढूँढें।

कभी प्रहरी बन
या फिर,
याचक बन ही सही,
स्वयं को,
किसी के "आज" में
अपने "कल" को न तलाशने दें।
युग के प्रगति पथ पर 
बिखर चुके काँटों पर
पुष्पों की सेज सजाएँ।

रामासुंदरम - आगरा (उत्तर प्रदेश)

Instagram पर जुड़ें



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos