आज बोलता है - कविता - पारो शैवलिनी

हे युग-पुरुष! ओ प्रेमचंद 
तेरी लेखनी के नींव पर
है टीका हुआ 
हिन्दी साहित्य का मानसरोवर,
जिसकी लहर से उठती उफान
नव-हस्ताक्षरों का है वरदान, जिसने
तेरी सेवासदन की छाया में रहकर
प्रतिज्ञा की है 
उजागर करने को
सभ्यता का रहस्य।
हे महामानव! ओ प्रेमचंद 
तेरी सरल और सजीव भाषा की
रंगभूमि पर
ग्राम्य जीवन की
हर तश्वीर फैली है 
जिसपर,
चीख़ता है गोदान
सिसकती है निर्मला 
बेचैन है गबन 
कल की पृष्ठभूमि पर 
आज को दोहराने को
मुँह खोलता है 
हे लेखन सम्राट! ओ प्रेमचंद 
तुम्हारी कल की लेखनी में 
आज बोलता है।

पारो शैवलिनी - चितरंजन (पश्चिम बंगाल)

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