सुनो ना - लघुकथा - ज्योति सिन्हा

"सुनो ना... कुछ कहना है तुमसे" बोल कर, स्वाति अजय के पीछे चल पड़ी।
अजय ने कहा - क्या है, ऐसे कैसे चलेगा हर वक़्त तुम्हारे दिमाग में कुछ ना कुछ उलझन रहता है। संभालो ख़ुद को, निकलो सारे उलझनों से। ऐसे तो तुम पागल हो जाओगी, क्या बेकार की साहित्य सेवा के पचड़े में पड़ कर तनाव मोल ले रही हो। इतना सुंदर लिखती हो, कितनी पकड़ है तुम्हें भावनाओं माहौल और आज के समय की। फिर क्यों किसी और के लिए लिखना। अपने आज़ादी से अपने लिए लिखो ना। ख़ुशी और संतुष्टि दोनों साथ मिलेगी। तुम्हारा मन परेशान ना हुआ करेगा, ख़ुश रहोगी तो हमारा आपसी रिश्ता भी सुखद चलेगा। इन बेकार मंचों की साहित्य सेवा के पचड़े में पड कर तुमने क्या-क्या और कितना सुकून खोया है।

स्वाति को उम्मीद ना थी कि अजय इतने प्यार से समझा देगा, स्वाति तो डर रही थी कि वह डाँट लगाएगा। रूठ जाएगा। जाने कितने दिनों तक यह अन-बन चलेगा।
लेकिन शायद आज ग्रह दशा अच्छी है। स्वाति ने लंबी आज़ादी की साँस ली... और कहा "सुनो ना..."
अजय ने कहा - "चाय पकौड़े के साथ सुनाओ...."

ज्योति सिन्हा - मुजफ्फरपुर (बिहार)

Instagram पर जुड़ें



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos