रिश्तों का रुका विस्तार - गीत - रश्मि प्रभाकर

रिश्तों का रुका विस्तार, रिश्ते हो गए व्यापार, रिश्ते अब सच्चाई का प्रमाण माँगने लगे।
रिश्तों में नहीं है जान, रिश्तो का रहा ना मान, रिश्ते ज़िंदगी के लिए प्राण माँगने लगे।
रिश्ते जो कभी थे शान, रिश्ते जो थे अभिमान, रिश्ते लोग फ़ुरसत की खूटी टाँगने लगे।
रिश्ते अब नाम के हैं, जाने किस काम के हैं, रिश्ते एक दूसरे से दूर भागने लगे।

रिश्ते अब शर्त में, तो रिश्ते अब गर्त में, रिश्ते अब स्वार्थ की ज़ुबानी बोलने लगे।
लज्जा का जो आवरण थे, प्यार का जो आचरण थे, रिश्ते वो ही, रिश्तों का भेद खोलने लगे।
रिश्ते पिता-माता वाले, रिश्ते बहन-भ्राता वाले, ज़रूरत की तुला सब रिश्ते तोलने लगे।
चाहे जब आधा किया, चाहे जब साझा किया, रिश्ते भी ढोंग का लबादा ओढ़ने लगे।

रिश्ते अब ढहने लगे, चुप-चाप रहने लगे, रिश्ते रूठ जाएँ तो मनाना बन्द हो गया।
दुख में ना सुख में, दर्द में ना प्रेम में, एक दूसरे के आना-जाना बन्द हो गया।
पैसे के हैं पीछे सब, बिन पैसे नीचे सब, रिश्ता अब ग़रीब से निभाना बन्द हो गया।
भाई व बहन के भी रिश्ते में डाली फूट, राखी, भाई दूज का चलाना बन्द हो गया।

रिश्तों की डोर, देखो हुई कमज़ोर कैसे, अपना ही अपने पे वार करने लगा।
अपनो पे शक कर, दुसरो पे हक़ कर, देखो कैसे आदमी व्यापार करने लगा।
अपनों से कर के गिला, ग़ैरों से जाके मिला, अब दूसरों पे, ऐतबार करने लगा।
रिश्ते अब सिमटने लगे, दायरो में बंटने लगे, आदमी परायों से जो प्यार करने लगा।

रश्मि प्रभाकर - मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश)

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