आषाढ़ के बादल - कविता - रमाकांत सोनी

उमड़-घुमड़ कर आ गए आषाढ़ के बादल,
अंबर में घिर छा गए आषाढ़ के बादल।

रिमझिम मूसलाधार बरसता घनघोर घटा छाए, 
कड़-कड़ करती दामिनी काले बदरा बरसाए।

गड़-गड़ कर गर्जन करते आषाढ़ के बादल,
झील ताल तलैया भरते आषाढ़ के बादल।

हरियाली खेतों में आए पीली सरसों मन मुस्काए,
भूमिपुत्र झूम के गाए आओ आषाढ़ के बादल।

उर आनंद उमड़ कर आता बहे नेह की धारा,
ख़ुशहाली घर-घर में आए हो हर्षित जनमन सारा।

नेह की पावन गंगा बहाते आषाढ़ के बादल,
घट-घट में प्रेम प्यार बरसाते आषाढ़ के बादल।

ताज़गी से खिलते चेहरे एक दूजे से मिलते चेहरे,
गाँव शहर सड़कें तर हो खेत सारे मिलते हरे।

पर्वत नदियाँ पेड़ पंछी मेघ देख हर्षाते हैं,
बाग़ों में कोयल पपीहे सब मीठे बोल सुनाते हैं।

झूम-झूम कर मयूरा नाचे नदियाँ भी बल खाती है,
प्रेमातुर सरिताएँ फिर सागर मिलन को जाती है।

अथाह सिंधु ले हिलोरे छा गए आषाढ़ के बादल,
सौग़ात ख़ुशियों की ले आ गए आषाढ़ के बादल।

रमाकांत सोनी - झुंझुनू (राजस्थान)

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