ज़िंदगी - कविता - अवनीत कौर "दीपाली सोढ़ी"

बे-बाक, बे-हिचक हो कर
लिखती हूँ, मैं ज़िंदगी की दास्ताँ,
कुछ ज़ख़्म नासूर हो रीस्तें रहें।
ज़िंदगी भर ना मिली
नासूर ज़ख़्मों की कोई दवा,
पीड़ा भर दी ज़िंदगी में
दर्द दिया बे-इंतिहा,
मुँह से निकले पल पल आह।
कुछ ज़ख़्म गहरे रिश्तों के थे,
आघात कर, बनते फ़रिश्ते थे।
ज़ख़्म देकर करते बे-हताशा थे,
दर्द देकर, देखते तमाशा थे,
ज़िंदगी में भर्ती सिर्फ़ निराशा थे।
हर पल वह नज़रों से गिरते थे,
रिश्तें थे, इसलिए हम संभलते थे। 
उन ज़ख़्मों में फैला है रोष,
ज़िंदगी हो गई मूक ख़ामोश।
मतलबी रहे, एहसान-फ़रामोश,
सुख छीन ज़िंदगी से, भर दिया आक्रोश।
क्यों होते है, ज़िंदगी में ऐसे रिश्ते,
भरे ज़ख़्मों को भी देते हैं, खरोंच। 

अवनीत कौर "दीपाली सोढ़ी" - गुवाहाटी (असम)

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