मातृभूमि - कविता - आराधना प्रियदर्शनी

जीवन पल्लवित हुआ तुम्ही से,
यह शरीर है तुम्हारा ही कण।
मुग्ध है तुम पर नीलांबर,
न्यौछावर फूल तारे मन्डल।।

आँचल में तेरे बड़े हुए हैं,
अपने पैरों पर खड़े हुए हैं।
तुम पर ही निर्भर जीवन्त आनन,
और निर्भर श्रीष्टी परिवर्तन।।

परिधान तुम्हारा दिन में तरणि का,
रात्रि में चंद्र प्रकाश का।
कारण हो सच के निर्माण का तुम,
निर्मम असत्य के नाश का।।

तुम में मिलें हैं अंगारक शोषक,
बसाते हैं तुम में पुरंदर।
सप्तस्वरों सी मधुर हो तुम,
आराध्य स्वत्व तुम्हारे अंदर।।

तुझमें पाया प्रणय सागर है,
तुझमें अत्यन्त तरलता है।
अतुल्य शौर्य है तुझमें,
अनुपम मृदु सरलता है।।
          
अनन्त व्याप्त है स्नेह तुम्हारा,
भुवन तुमसे तृप्त है।
अर्पण तुझको मेरा तन मन,
तुमसे समलंकृत भाव दृप्त है।।

जहाँ लड़ कर विजयी हुए हम,
तू वो रणभूमि है।
जिसने प्राप्त कराया लक्ष्य हमें,
तरणी वो जन्मभूमि है।।
  
जिसपर विनय विलास हम भोगे,
तू वो कर्मभूमि है।
जिसकी असंख्य परिभाषाएँ हैं,
तू विश्वपालिनी मातृभूमि है।।

आराधना प्रियदर्शनी - बेंगलुरु (कर्नाटक)

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