छवि (भाग ६) - कविता - डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी"

(६)
मानव काया मोक्ष-द्वार है, परम साधनागार भी।
जीवन दुखमय यही बनाए, करे यही उद्धार भी।।
जीवन सुख-दुख का सम्मिश्रण, धूप-छाँव का खेल है।
दीपक उतनी देर जलेगा, जितना उसमें तेल है।।

मानव जीवन पथ का राही, मंज़िल उसका लक्ष्य है।
चले झेलकर बाधाएँ जो, निश्चित वही सदक्ष है।।
लक्ष्य साधकर चलता मानव, पाने को सुख-संपदा।
यही दुःख का कारण बनकर, मानव पर हँसता सदा।  

रे मूरख! यह लक्ष्य गलत है, सही लक्ष्य सद-ज्ञान है।
सद-ज्ञान लब्ध करनेवाला, पाता जग में मान है।।
तुम मानव हो, तुमपे निर्भर, यह सारा संसार है।
तुम जीते तो जीत जगत की, तुम हारे तो हार है।।

हार मानते वे ही जग में, जिनको सुख की आस हो।
लोभ-लालसा संगी बन कर, अहरह जिनके पास हो।।
माया के अधीन ये होते, खोते निज पहचान हैं।
सही राह जो इन्हें दिखाए, मानव वही महान है।।

डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी" - गिरिडीह (झारखण्ड)

Instagram पर जुड़ें



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos