ख़ुद-ग़र्ज़ी का लिबास - ग़ज़ल - प्रवीणा

अरकान : फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़अल
तक़ती : 122 122 122 12

यूँ ख़ुद को ना इतना सताया करो।
खुलकर भी कभी मुस्कुराया करो।।

माना ये आज़माइशों का दौर है,
पर ख़ुद को ना यूँ आज़माया करो।

बरसती है आँखें बरस जाने दो,
आँसुओं को ना बंदी बनाया करो।

होती है इक मुद्दत वायदों की भी,
ना दिल को दुखा कर निभाया करो।

रूठ जाएँगी हसरतें ढ़लती उम्र के संग,
इन हसरतों से ना नज़रें चुराया करो।

जीना ख़ुद के लिए भी ज़रूरी ही है,
मार ख़ुशियों को ना वक़्त ज़ाया करो।

है ग़लत माना ये ख़ुद-ग़र्ज़ी का लिबास,
मगर इसे भी कभी पहन जाया करो।

प्रवीणा - सहरसा (बिहार)

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