इठलाती ज़िंदगी - कविता - सन्तोष ताकर "खाखी"

यूँ इठलाती-ठिठलाती, ताक जग से, 
तुझमें थोड़ा मैं, मुझमें तू बसती हैं।
तेरा ये प्यार मुझसे, निरंजक प्रवाह में,
'खाखी' तू मुझमें 'नीर' सी बहती हैं।
यू तो ज़िंदगी खुशियों की किताब रहीं,
पर दर्द भरे किसी पन्ने से भीगी पलकें भी सूखती हैं।
आस-पास तेरा होना ज़रूरी नहीं, 
'खाखी' नाम से ही ज़िंदगी आहिस्ता हँसती हैं।
जग ने जो प्रतिमा बनाई सौंदर्य की,
झुककर देखा मैंने, हर कण में संपूर्णता मिलती हैं।
देव कह ले, कह ले चाहे देवी,
मेरे मन के हर कोने का शृंगार बन तू रहतीं हैं।
'संतु' इस दिन और दुआ लगे,
हर तरफ़ तू रोशनी में 'खाखी' सी लगती हैं।।

सन्तोष ताकर "खाखी" - जयपुर (राजस्थान)

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