जिसने अवगत कराया हमें,
इक दूजे की भावनाओं से,
जो मिलवाती हैं हमें ख़ुद से,
हर होनी की सम्भावनाओं से।
जो परिचय देती है अपना,
अपनी स्वर्णिम संवेदनाओं से,
जो लक्ष्य उजागर करती है अपना,
कठिन श्रम साधनाओं से।
जो एकता की डोरी से,
बाँधें रखती है हमें निर्मल ज्ञान से,
जिसकी उफान की छींटे अक्सर,
जुड़ी होती है अपनी पहचाना से।
ये भूमि बिना जल प्यासी है,
आकाश बिना जल प्यासा है,
बिना किसी अनमोल लम्हें के,
यादों का मोल धुआँ सा है।
जो नींव सी होती है जीवन की,
वो आशा और निराशा है,
शब्दों की रेशमी ज़बान है जो,
वो हमारी हिंदी भाषा है।
आराधना प्रियदर्शनी - बेंगलुरु (कर्नाटक)