छवि (भाग १) - कविता - डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी"

(१)
अदृश्य चेतना की छवि तुम, दिव्य-प्रभा से हो भरी।
आवेगी और विवेकी हो, ज्ञानमयी शिवसुंदरी।।
तुझसे है स्पंदित यह जीवन, स्पंदित यह संसार है।
मन का सबसे गहरा तल तू, मन का तू विस्तार है।।

तुझसे है जड़ या जड़ से तू, प्रश्न आज तक है खड़ा।
विज्ञान लड़े आध्यात्म लड़े, प्रश्न जटिल है यह बड़ा।
खेल कौन खेल रहा है जग में, अदृश्य शक्ति है कहाँ?
कौन व्यवस्था चला रहा है, चलो मुझे लेकर वहाँ।।

सत्ता का उद्भव संचालन, किसके द्वारा हो रहा?
अभिवर्धन परिवर्तन पर भी, प्रश्न खड़ा अतिशय बड़ा।
जीव-जंतु और वनस्पतियाँ, कैसे साँसे ले रही?
इन घटकों के पीछे कोई, महाशक्ति क्या है नहीं?

प्राणी के काया में मौजूद, चलते कैसे तंत्र हैं?
सकल क्रियाएँ चलती कैसे, कोई जादू मंत्र है?
अणु से लेकर विभु तक पसरे, वैभव का कारण कहो।
नाथ! हमें छवि दिव्य-जगत की, दिखलाओ, न मौन रहो।।

डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी" - गिरिडीह (झारखण्ड)

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