वो बरगद - कहानी - देवेन्द्र नारायण तिवारी "देवन"

हर दिन की तरह आज भी मैं और मेरे मित्र सूर्यकांत सुबह सुबह घूमने निकले थे, सुबह की ताज़ी हवा के साथ एक छोटी सी सैर पर हम दोनों प्रतिदिन निकलते थे। मेरे घर से लगभग डेढ़ किलोमीटर दूरी पर स्थित सिद्ध आश्रम जहाँ बरगद के पेड़ के नीचे बैठकर सामने तालाब के पानी का दृश्य आँखों को एक सुखद अहसास देता था।
कोहरे के कारण दो पग का भी दिखाई नहीं दे रहा है। दो किलोमीटर की सैर करने के बाद भी, सर्दी है कि छूटने का नाम नहीं ले रही है। हाथों की उँगलियाँ जाम हो रही हैं। सूर्यकांत जी मैं ना कहता था कि प्रकृति अपने स्वभाव में परिवर्तन कर रही है।
देवन सर - आपकी बात बिल्कुल सही है, परन्तु ये परिवर्तन अचानक क्यों हो रहे हैं? आप तो जीव विज्ञान प्रवक्ता हैं। साथ ही प्रकृति से हमेशा जुड़े रहते हैं। इसके पीछे क्या कारण हो सकते हैं?
सूर्यकान्त जी इस आधुनिक युग में हमने मानव निर्मित वस्तुओं का उपयोग बढ़ाया है।
आज हम प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं और कृतिमता की ओर लगातार बढ़ रहे हैं, जिस कारण…!
क्या हुआ, देवन सर किस कारण?
सूर्यकान्त जी कोई आवाज़ आपने सुनी?
नहीं तो!
मुझे ऐसा लगा की जैसे कोई हमारे पीछे आ रहा हो!
मुझे तो कोई आहट सुनाई नहीं दी है। आपको कोई भ्रम हुआ है।
हाँ हो सकता है, भ्रम ही हुआ हो। इस घने कोहरे के कारण दूर तक ठीक से कुछ देख भी नहीं पा रहे हैं। ऊपर से इन गाड़ियों का शोर और उनसे निकलता धुआँ, वातावरण को लगातार प्रदूषित कर रहे हैं। पता नहीं... क्यों हम विज्ञान विज्ञान के पीछे पागल हैं। जब पर्यावरण ही सही नही होगा तो न हम होंगे न ये विज्ञान। अब गाँव में ही देख लो कितने पेड़ लगवाए थे मैंने ओर आपने, लोगों को ख़ूब समझाया भी कि पेड़ हैं तो हम हैं।
अरे... कुछ है... कोई है हमारे पीछे... मुझे फिर से किसी बहुत भारी चीज़ कि आहट सुनाई दी है।
हाँ देवन जी मैंने भी सुनी किसी के रोने की आवाज़ और उसने रोते हुए कहा, रुको रुको मेरी बात सुनो;
मुझे लगता है हमें देखना चाहिए!
हाँ हाँ चलो देखते हैं!
देवन जी यहाँ तो कोई भी नहीं हैं।
सूर्यकान्त जी ये देखो ये बरगद का पेड़ कल तक तो यहाँ नहीं था।
हाँ सही है! यहाँ कोई बरगद था ही नहीं।
अरे… 
घोर आश्चर्य! देवन जी ये तो बरगद का वही पेड़ है, जो सिद्ध आश्रम मेँ लगा हुआ है। जिसके नीचे हम बैठ कर योग व्यायाम करते है। वही बरगद जो तालाब किनारे लगा है और अभी अभी हम वही से आए हैं।
सूर्यकान्त जी आप कैसी बे-वजह बात कर रहे है।
आप का मतलब है कि ये बरगद का पेड़ वहाँ से चलकर यहाँ आ गया है?
हाँ देवन जी 
वो देखिए, हमने कील से बरगद के तने पर प्रकृति बचाओ लिखा था।
वो देखिए... वो लिखा हुआ है।
(तभी रोने की आवाज़ सुनाई दी)
कौन है वहाँ? बरगद के पीछे कौन है? क्यों रो रहे हो? सामने आओ...!
मैं बरगद हूँ। मुझे वट वृक्ष भी कहा जाता है। और ये आपके पढ़े लिखे वैज्ञानिको ने मेरा वानस्पतिक नाम (ficus bengalensis) फाईकस बेंगालेनसिस रखा हुआ है, और आपके ये अंग्रेज मुझे बनयान ट्री कहते है।
मैं तुम्हारा वही बरगद हूँ जो तालाब के किनारे सिद्ध आश्रम में लगा हुआ हूँ।

क्यों सुबह सुबह दिमाग की ऐसी तैसी कर रहे हो। सूर्यकान्त जी मुझे लगता है इस पर कोई शरारती लड़का छिपकर बैठा है। बाहर निकलो जो भी है...!
अरे देवन जी लड़के को छोड़िए, घोर आश्चर्य! ये पेड़ यहाँ कैसे?  
हाँ ये है तो वैसा ही, बिल्कुल सब कुछ वही...
देवन जी मैं आपका वही बरगद हूँ, और मैं ही रो रहा हूँ,
(डरते हुए) हाँ पर तुम यहाँ कैसे? और रो क्यों रहे हो?
(पेड़ की शाखाएँ हिलाते हुए) आज मेरे जीवन के 340 वर्ष हो चुके है, और मैं लगातार सभी को रात दिन बिना कोई शुल्क लिए प्राणवायु प्रदान कर रहा हूँ। जिसे विज्ञान ऑक्सीजन कहता है।
जिसके बिना मानब ज़िंदा नहीं रह सकता है।
मेरी नि:शुल्क सेवा का क्या यही फल मिलना चाहिए कि मेरे हरे भरे आँगन को ये मनुष्य नष्ट करता चला जा रहा है! मेरी सखी इमली, जिससे मैं हर रोज़ खट्टी मीठी बातें किया करता था, तुम्हारे इन लालची इंसानों ने मेरी आँखों के सामने एक ही पल में मशीनों से काट कर ज़मीन पर गिरा दिया। और उसी के बगल में नीम थी जिसने पुरे जीवन प्राणवायु के साथ साथ कई लोगों की कई बीमारियों को अपनी औषधीय गुणों से ठीक किया, और कभी उसकी क़ीमत नहीं माँगी। उसको भी काट दिया।
और वो किनारे लगा आम का पेड़ जो मुझसे हमेशा कहता था कि मेरे 10 बच्चे होंगे, जिनको मैं अपनी आँखों के सामने लहराते हुए देखूँगा और वो मुझसे ज़्यादा मीठे आम सभी जीवों को, सभी मनुष्यों को दिया करेंगे, बिना कोई स्वार्थ के। उसको भी काट दिया….(रोते हुए)...
जी भर गया है इन मनुष्यों से, 
बस तुम दोनों ही थे, जो हर रोज़ मुझे प्रणाम करते और मेरी छाँव मेँ बैठकर पूरी प्रकृति को बचाने का चिंतन करते, 
इसलिए मैंने ये तय किया कि अब मैं तुम्हारे साथ रहूँगा, और मैं सिर्फ़ तुम्हे ही प्राणवायु प्रदान करूँगा। जब किसी को हमारी फ़िक़्र नहीं है, तो हम भी क्यों करें। बस इसी वजह से मैं बरगद तुम्हारे पीछे पीछे चला आया।
(इसी बीच कानों को दूसरी आवाज़ सुनाई दी) अरे देवन  दिन चढ़ गया है, और अभी तक सो रहे हो, आज घूमने भी नहीं गए...
अरे... माँ आपने मुझे जगाया क्यों नहीं, मैं अभी तक सो रहा था, आज तो घूमने नहीं जा पाउँगा, कॉलेज भी जाना है।

अजीब स्वप्न था! पर थी हक़ीक़त!

देवेन्द्र नारायण तिवारी "देवन" - महोबा (उत्तर प्रदेश)

Instagram पर जुड़ें



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos