जग की पीड़ा बाँधें - गीत - आलोकेश्वर चबडाल

समय डाकिया बाँट रहा जब नीर जगत को,
आओ मिलकर हम इस जग की पीड़ा बाँधें।
शिविर तना है, तिमिर घना है, डरें नही पर,
नवल किरण को आमंत्रण दें, लौ आराधें।।

नैनों ने सपने खोए हैं, अधरों ने मुस्कानें,
गौरैया ने आँगन खोया, कोयलिया ने तानें।
शैशव ने ममता खोई है, ममता ने सन्तानें,
किसका दुःख ज़्यादा है ये तो देने वाले जानें।।

भुजपाशों में जकड़ें इनको, नेह भेंट दें, 
गलने को हैं आतुर आकुल, गलने ना दें।
समय डाकिया...

तन मन सबके हुए अहिल्या, कपिल ताप के मारे,
दान पुण्य तप आयू भर के, क्षणिक शाप से हारे।
शबरी जैसे नयन धरे हैं, अपलक द्वारे द्वारे, 
अधरों पर बस टेर यही है, आ रे रघुवर आ रे।।

रघुनन्दन से धरें चरण हम, सधे सधे से,
मुस्कानों से सिसकी वाली, साँसें साधें।।
समय डाकिया...

धागों की हम बनें कलाई, थामें आँचल सूना,
बाबा की लाठी बन जाएँ, कह दें कम्पन छू ना।
मुनि दधीचि की दान कुटी में चलो रमाएँ धूना,
दुःख को दारुण आधा कर दें, सुख को कर दें दूना।।

पवनतनय की परम्परा में प्राण भरें हम,
लखनलाल की लगन अगन को आओ लाँघें।
समय डाकिया बाँट रहा जब नीर जगत को, 
आओ मिलकर हम इस जग की पीड़ा बाँधें।।

आलोकेश्वर चबडाल - दिबियापुर (उत्तर प्रदेश)

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