अरकान : मुस्तफ़इलुन फ़ऊलुन मुस्तफ़इलुन फ़अल
तक़ती : 2212 122 2212 12
उम्मीद क्या रखें हम जाती बहार से,
पौधे झुलस रहे हैं मौसम की मार से।
बर्बाद जो हुए हैं गिनती नहीं उनकी,
कह कर भी क्या करेंगे परवरदिगार से।
हालात के परों पे निशानी बनी है जो,
वर्षों में मिट सकेंगी शायद सुधार से।
ज़ंजीर में बंधे हैं इंसान के जज़्बात,
बेसब्र हो रहे हैं हम इंतज़ार से।
मसले बहुत बड़े हैं सुलझेंगे कब तलक,
धरती भी रो रही है पापों के भार से।
आलोक रंजन इंदौरवी - इन्दौर (मध्यप्रदेश)