वैष्णो माता की यात्रा - संस्मरण - डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"

सनः १९८७ ई. की बात है। मैं उस समय दिल्ली विश्व विद्यालय से पी. ऐच. डी. कर रहा था। शोध कार्य के क्रम में शिक्षण भ्रमण अवकाश के निमित्त मैं कुछ महीनों के लिए जम्मू विश्वविद्यालय शोधच्छात्र के रूप में पहुँचा था।  एकबार मेरे साथ शोधकार्य कर रहे मेरे हिमाचली मित्र श्री नवीन चन्द्र शर्मा जी ने कहा कि मैं दो बाहर से समागत मित्र के साथ कल श्री वैष्णो माता के दर्शन हेतु जाऊँगा, आप भी चलें तो अच्छा लगेगा। यह सुनते ही अन्तर्मन माता रानी वैष्णो जी की पावन दर्शनार्थ वासन्तिक मधुमास सदृश खिल गया। मेरे मन में बचपन से श्री वैष्णो माँ के दर्शन की महत्त्वाकांक्षा थी। उसे कल पूरी होते देख रहा था। उससे पहले मैं कटरा का अर्थ माता वैष्णो दरबार समझता था।

अतीव उत्कंठा के कारण मैंने अपनी जाने की स्वीकृति मित्र श्री नवीन भाई को तुरन्त दे दी। प्रातःकाल हम चारों ने जम्मूतवी बस अड्डे से कटरा के लिए बस पकड़ी। सुष्मित हरित भरित पुष्पित सुरभित घूमावदार पर्वतशृङ्खलाओं का मनोहर मनोरम चारुतम शीतल मन्द निर्मल मलयज पवन जन्य थिथुरन का आनंद लेते हुए कटरा पहुँचे। कटरा में नीचे माँ वैष्णो देवी के प्रवेश यात्रा द्वार से पूर्व एक मातारानी और गणपति बप्पा का मन्दिर है। वहाँ माँ के अनन्य भक्तों ने यात्रियों के लिए लंगर लगाते हैं। लाखों की संख्या में प्रतिदिन आनेवाले भक्त यात्रियों के लिए भोजन की व्यवस्था, हलुआ का मेवामिश्रित घृत निर्मित प्रसाद की व्यवस्था देख मैं विस्मित हो रहा था। भोजन के उपरांत  हमने चार डण्डे खरीदे, माता रानी के नामवाले शिर में बाँधने हेतु चुनरी कपड़े खरीदे। उस समय श्री मातारानी के दरबार तक पहुँचने के लिए पूरी तरह सड़क निर्माण नहीं हुआ था। घोड़े, पिट्ठू आदि की सवारी वाहक उपलब्ध थे। ख़तरनाक सीढ़ियाँ भी चौदह कि.मी. पर्वतारोहण का दुर्गम साधन उपलब्ध था। जय माता दी के मधुर जोशीले जयकारों में गुंजित वैष्णो धाम का मार्ग दर्शनाभिलाषियों से खचाखच भरा दर्शनाभिलाषियों के पंक्तिबद्ध जत्थे जोर से बोलो जय माता दी, मैं नहि सुनिया जय माता दी, आगे बोलो जय माता दी, पीछे बोलो जयमाता दी से उत्साहित और आनंदित हो रहा था। मेरी पहली इतनी ऊँची पर्वत यात्रा थी। पैर सूजने और ठल्ले पड़ने लगे थे। रास्ते में तेल से पैर मालिस करने वाले भी मिलते थे, किन्तु पावन दर्शन का उमंग कहाँ थकान अनुभव करने देती। हमलोग दो ढाई घंटे में अर्द्धकुमारी स्थान पहुँचे। वहाँ हज़ारों की खचाखच भीड़ थी। दो तीन घंटे की इन्तज़ार के बाद हमें अर्द्धकुमारी माँ की सुराहीदार जलकलश के समान पतली गुफा में प्रवेश करने का सुअवसर मिला। इतनी घुमावदार पतली दुर्गम गुफा और सौ सवा सौ किलो के लोग उसमें घूसकर पार निकल आते थे- आश्चर्य की बात लगती थी। किन्तु माता रानी की अनुपम कृपा से सबकुछ संभव था। रात हो गई थी, भीषण ठंड पड़ रही थी। हम सबने स्वेटर, जैकेट और कोट पहन रखे थे। बर्फबारी भी हो रही थी। ठिठुरन से गार्त शिथिल भी हो रहा था। तीन बजे रात्रि हम सब माता वैष्णो देवी के विशालकाय दरबार प्रांगण में पहुंँचे। माता रानी के दर्शनार्थ गुफा में प्रवेश करने हेतु दो किलो मीटर की लाइन लगी हुई थी। सुरक्षा के कड़े इन्तज़ामात थे। अनुशासन और धैर्य देखने लायक थी, बस एक धुन सवार था जय माता दी। हम सब भी टिकट, प्रसाद, लावा नारियल आदि ले चुके थे।

माता दरबार में ही मित्र श्री नवीन जी के एक मित्र पूजारी थे उन्होंने स्नान करने का स्थान दिखला दिया। कँपकँपाता ठंडे झरने के पानी में किसी तरह नहा धोकर हम सब दर्शनार्थ दरबार लाइन में लग गए। उस समय मातारानी के मन्दिर का मार्ग संकीर्ण पतली मोड़दार गुफाओं से होकर था। उसी गुफा में वाण गंगा की निर्मल निश्छल शीतल धारा भी बहती थी उसमें चरणों और मन को शीतल करते हुए हमलोग माता रानी महाकाली  महालक्ष्मी और महासरस्वती के रूप में विराजमान महाशक्ति स्वरुपा श्री माँ वैष्णो देवी को नारियल फोड़ पावन जल उनके शिलापट पर समर्पित किया, नमन किया, दुर्लभ आशीर्वाद से कृत्य कृत हुआ। मानो जीवन के सम्पूर्ण अभिलाषा पूर्ण हो गई हो।

दर्शन कर हम सभी माँ दरबार से बाहर निकले। नास्ता चायपानादि के अनंतर हम सभी वहाँ से छह किं मी. ऊपर भैरो स्थान के लिए प्रस्थान किए। एक बजे के करीब बर्फीले रास्ते से भैरो बाबा के मंडप में पहुँचे, कुछ प्रतीक्षा के बाद उनके दर्शन किए। और पुन कटरा के लिए प्रस्थान किए। आते समय हम सबने टूटे फुटे सीढ़ियों का उपयोग किया, यद्यपि वे ख़तरनाक थीं, किन्तु त्वरित प्रत्यावर्तन का साधन अवश्य थी। 
वास्तव में प्राकृतिक सुरम्यता से सजी श्री माँ वैष्णो देवी की पहली यात्रा आज भी स्वर्णिम स्मृतिपटल बनकर दिल में छाई हुई है।

डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" - नई दिल्ली

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