आदिवासी - लेख - मंजरी "निधि"

भारत देश विभिन्न संस्कृति, विभिन्न धर्मों, विभिन्न जनजातियों और भाषाओं का सम्मिश्रण है। यहाँ के लोग शहरों, गाँवों और जंगलों में रहना ज़्यादा पसंद करते हैं। शहरों में रहने वाले शहरी, गाँवों में रहने वाले ग्रामीण और जंगलों में रहने वाले आदिवासी कहलाते हैं। आख़िर ये आदिवासी क्या होते हैं? क्या खाते हैं? ये समाज से कटे क्यों होते हैं? इनमें क्या अदभुत और विलक्षण होता है? इन्हें लोग अजूबे की तरह क्यूँ देखते हैं? इनकी वेशभूषा, खानपान क्यूँ आम आदमियों की तरह नहीं होता? ये समाज से क्यूँ दूर भागते हैं? ऐसे अनगिनत प्रश्न मन में उठते हैं। सुना है ये प्रकृति पूजक होते हैं क्यूँकि प्रकृति ही इन्हें अन्न, परिधान, आवास और औषधि प्रदान करती है। ये अन्धविश्वास में बहुत विश्वास रखते हैं। ये पूजापाठ में बकरे या मुर्गे की बलि देते हैं। ये अपने क़बीले में किसी आगन्तुक को पसंद नहीं करते। आज जब उद्योगों के विकास के लिए खनिज खोदे जा रहे हैं। जंगल काटे जा रहे हैं। सड़कों के चौड़ीकरण के लिए पठारों और चट्टानों को काटा जा रहा है। यही कारण है कि इन्हें जंगल छोड़ गाँवों के पास अपना आशियाना बनाना पड़ा। इनमें कुछ हिजरती भी है। आज मैं कुछ ऐसे ही हिजरती आदिवासियों के साथ रहने का अनुभव साझा कर रही हूँ जो मरुस्थल से इंटरनेशनल फेस्टिवल तक पहुँचे और सम्मानित हुए।

मैं कच्छ का रण देखने जा रही थी। रास्ते में मुझे एक जगह आठ से दस अंडकार झोपड़ियाँ दिखाई दीं। थोड़ा आगे जाकर फिर से वैसी ही झोपड़ियाँ दिखाई दीं। मेरी उन्हें देखने की जिज्ञासा हुईं। मेरी गाड़ी उन झोपड़ियों के पास रुकी। मैंने देखा झोपड़ियों के बाहर का स्थान साफ़ सुथरा था। वहाँ एक खाट बिछी थी और उसपर पैचवर्क की चादर जो सिर्फ हैंडीक्राफ्ट के शोरूम में दुर्लभ ही देखने को मिलती है वो बिछी थी। मैंने गाड़ी से उतर कर देखा कि सारी झोपड़ियाँ प्राकृतिक रंगों से, अलग अलग चित्रकारियों से सजी हुईं थीं। झोपड़ियों के दरवाजे पर मिरर आर्ट की एक दीवार थी जो उस झोपड़ी जिसे भुंगा कहते हैं की सुंदरता में चार चाँद लगा रही थी। गाड़ी का आवाज़ सुनते ही एक वयस्क महिला जिसके चेहरे की झुर्रियाँ वक़्त के थपेड़े दर्शा रही थी, बाहर आई। उन्होंने बहुत ही सुंदर कलाकारी का रंगबिरंगा परिधान पहना था और वो कम से कम एक किलो चाँदी के आभूषणों से सिर से लेकर पाँव तक सजी हुईं थीं। मैंने उनसे रेगिस्तान में रहने का राज़ पूछा तो उन्होंने अपने दिल को मेरे सामने किताब की तरह खोल कर रख दिया। वे सिंध प्रान्त के हिजरती आदिवासी हैं। मवेशियों को घाँस और पानी की तलाश में कच्छ के रण में आए और फिर यहीं के हो गए। मवेशियों की तो मौज़ हो गई पर उनको अपनी जीविका चलाने के लिए बहुत हाड़तोड़ संघर्ष करना पड़ा। पानी लेने कोसों दूर जाना पड़ता। गाँव काफ़ी दूर होते और जाने वाले रास्ते कच्चे होते। इनके पास होता मवेशियों का दूध और इनके कपड़ों की कारीगिरी का हुनर। रेगिस्तान में पथदर्शक दिन में सूरज और रात में चाँद तारे होते। पुरुष रेगिस्तान से इतने वाक़िफ़ होते थे कि वहाँ के बी. एस. एफ के लोग अपने साथ रखते क्यूँकि ये जवानों को ऊँट के पैरों के निशान देखकर बता देते थे कि ऊँट पर कितने पुरुष, कितनी स्त्रियाँ, कितने बच्चे और कितना भार था। एक बार कच्छ संगठन की नज़र इनकी कारीगिरी पर पड़ी। उन लोगों ने इन्हें अलग अलग रंगों के प्लेन कपड़े, अलग अलग नंबर की सुइयाँ, रंग बिरंगे धागों की गट्टियाँ, छोटे छोटे काँच मुहैया करवाए और लिबास बनवाए। सारे कबीली की स्त्रियां एकत्रित हुईं और किसी ने उल्टे बखिये की, साटन स्टिच की, चेन स्टिच की, बटन हॉल की और काँच की सजावट की कारीगिरी से अनोखे डिज़ाइन बनाएँ और बदले में अच्छे पैसे मिले। इस तरह उन्होंने अपने हुनर को अपना उद्योग बनाया और संस्थाओं ने उनके इस हुनर को देश के राज्यों में पहुँचाया और विदेशों में इंटरनेशनल फेस्टिवल में भी इनकी कारीगिरी को पहचान मिली। मेरा यह मानना है कि हर आदिवासी क़बीले की अपनी अलग पहचान होती है। यदि इन्हें सही मार्ग दिखाने वाला मिल जाए तो ये अपने हुनर को सारे संसार के सामने रखकर सिद्ध कर सकते हैं।

मंजरी "निधि" - बड़ोदा (गुजरात)

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