प्रात बेला - कविता - आलोक कौशिक

लालिमा का अवतरण है,
रोशनी का आवरण है।
भोर आई सुखद बनकर,
सूर्य का यह संचरण है।

प्रकृति का आलस्य टूटा,
तमस भागा और रुठा।
हो गई धरती सुहानी,
विहसता है जग समूचा।

पंछियों का शोर गुंजन,
मधुरमय दिखता है उपवन।
रात्रि का विश्राम आया,
प्रात लाई स्फूर्ति तन मन।

कर्म के पथ का पुजारी,
आ गई बारी तुम्हारी।
छोड़ कर आसक्ती जागो,
राह तकती है तुम्हारी।

धैर्य से चलना हमेशा,
सत्य पर बढना हमेशा।
मंज़िलें तुम को मिलेंगी,
अग्रसर रहना हमेशा।

आलोक रंजन इंदौरवी - इन्दौर (मध्यप्रदेश)

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