ज़िंदगी की राह - कविता - रविन्द्र कुमार वर्मा

ज़िंदगी की राह में, गुलशन भी है सहरा भी है।
मदमस्त सा जीवन भी है, जीवन पे फिर पहरा भी है।।

राह सूनी सी भी है और क़ाफ़िलों का दौर भी,
बिखरी हैं ख़ामोशियाँ और फैला है कहीं शौर भी।
स्याह काली रात भी, रोशन सा सवेरा भी है,
जिन्दगी की राह में, गुलशन भी है सहरा भी है।।

सुहृदय भी मिल जाएँगे, निकृष्ट भी प्रचूर हैं,
मरहम भी कुछ लगाएँगे, और ज़ख्म भी भरपूर है।
यहाँ गाय जीवनदायिनी और शेर बघेरा भी है,
ज़िंदगी की राह में, गुलशन भी है सहरा भी है।।

पर ना रूकना हार कर, जैसी हो राह पार कर,
मन की ही मानना सदा, जीना ना मन को मार कर।
ना त्रास हो, माना अँधेरा गहरे से गहरा भी है,
ज़िंदगी की राह में, गुलशन भी है सहरा भी है।।

है जो दहशत चोट से, तो अलंकार क्या बन पाओगे,
लहरों के भय से क्या साहील पर ही तुम रुक जाओगे।
उफान पर दरिया कहीं, तो जल कहीं ठहरा भी है,
ज़िंदगी की राह में, गुलशन भी है सहरा भी है।।

हार कर जो बैठे तो, फिर पार कैसे जाओगे,
और जीत की जो ठान ली, तो हार कैसे जाओगे।
हैं जो सुनी बस्तियाँ, तो यहीं बसेरा भी है,
ज़िंदगी की राह में, गुलशन भी है सहरा भी है।।

साहसिकता से चलो तो, राह ये दुर्गम नहीं,
बाधा डाले पथ में जो, संसार में वो दम नहीं।
वर्तमान है तिमिर, तो भविष्य सुनहरा भी है,
ज़िंदगी की राह में, गुलशन भी है सहरा भी है।।
मदमस्त सा जीवन भी है, जीवन पे फिर पहरा भी है।

रविन्द्र कुमार वर्मा - अशोक विहार (दिल्ली)

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