रेत - कविता - सुषमा दीक्षित शुक्ला

रेत सा फिसलता रहता,
बेदर्द वक़्त बंद मुट्ठी से,
फिर भी मन में है मचलती,
आसमान की सी उमंगे।
रेत के टीले सी उन्मुक्त,
ढहती हुई ज़िंदगानी,
फिर भी मानव की उम्मीदी देखो।
बस एक मुट्ठी देह में ही,
ये आकाश जैसे मन सँवरते।
नैनों की नन्ही सी कोठरी में
गगनचुंबी ख़्वाब पलते।
रेत तू तो रेत ही ठहरी न,
कब बन सके हैं तेरे महल।
एक तिनका उड़ा देता है तेरा वजूद।
फिर भी तेरे मीलों लम्बे ऊँचे गुंबद।
जगाते हैं एक अजीब सी उम्मीद।
हवा के साथ उड़कर,
ऊँचाई को छू लेने की तेरी जिजीविषा।
शायद यही है जीवन व्यथा,
यही है तेरी मेरी कहानी भी।
तेरी यही मौन अभिव्यक्ति
यही है संवेदना तेरी।
और तेरे हौसले की उड़ान भी।
तेरा वजूद है कितना नाज़ुक,
और कितना शक्तिशाली भी,
जब तू अपने बवंडर से,
ले उड़ती है पूरी की पूरी बस्तियाँ।
परन्तु ये भी बदनसीबी ही है 
रेत के घर सजाने वालों की।
कि जब जब जगी उम्मीद,
कोई जलजला बहा ले गया,
रेत का घर हो महल।
ज़िंदगी सी मचल कर 
रह जाती है किसी की मासूमियत
फिर भी उम्मीद नहीं छोड़ती दामन।
फिर से तलाशती है जीवन।
शायद यही है मंथन,
यही है यही दर्शन जीवन दर्शन।

सुषमा दीक्षित शुक्ला - राजाजीपुरम, लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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