अरकान : मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन
तक़ती : 11212 11212 11212 11212
जिसे लिखा था मैंने ही अश्क से, जिसे सजाने वाला नसीब था।
वो अशार फिर न पढ़ा गया, जो मेरी नज़र के क़रीब था।।
वो थी चाँदनी मे खिली-खिली, मैं भी ओस मे था फ़ना हुआ।
मेरे ज़ख़्म सारे उभर गए, वो ख़्वाब कितना अजीब था।।
मैंने अर्श से ले फर्श तक, उसे अपना क़ाबिज़ कर दिया।
उसे शक रहा मेरे इश्क़ पर, उसके हाँथ मे एक ज़रीब था।।
वो था सागरों सा बिछा हुआ, जिसमे डूबते आफ़ताब है।
मैं रज़ा से उसकी खड़ा हुआ, कुछ टापुओं सा नकीब था।।
मेरी टूटती है रूह जब, मैं हूँ लेट जाता रेत पर।
उसने गा के मुझे सुला दिया, वो दरिया कितना खतीब था।।
मैंने समझ कर उसको जहाँगीर, दिले तख़्त ताऊस अता किया।
वो गया दिलों में दीवार कर, वो शख़्स कितना ग़रीब था।।
मोहित बाजपेयी - सीतापुर (उत्तर प्रदेश)