फिर क्यों - कविता - राम प्रसाद आर्य "रमेश"

प्रभु! तूने रचा गर हर जड़-चेतन,
फिर, क्यों ये मारा-मार जगत में? 
फिर क्यों ये मारा-मार?
प्रभु! तूने रचा गर...

सबकुछ तेरा, कुछ भी न मेरा। 
मुझको दिया बस तूने डेरा। 
चार दिवस की सिर्फ़ चाँदनी, 
फिर क्यों गहन ये अन्धकार?
प्रभु! तूने रचा गर...

कर्ता तू और भर्ता तू है। 
दाता तू, और हर्ता तू है। 
फिर मैं क्या, मेरा क्या, मद क्या? 
फिर क्यों ये कपट, द्वेष, संसार? 
प्रभु! तूने रचा गर...

इन्सां में तू हैवां मैं तू,
जड़ में तू, कण-कण में तू है। 
जल, थल, अनल, वायु में तू है, 
फिर क्यों ये भव-भय बेकार? 
प्रभु! तूने रचा गर...

राजा तू है, रखवाला तू है,
घरनी तू, घरवाला तू है। 
तू है, तब ये सब रिश्ते हैं, 
फिर क्यों ये महाभारत बेकार? 
प्रभु! तूने रचा गर...

अगम, अगोचर, अलभ, अभय तू, 
जीवन-मौत, तम-जोत भी तू है। 
ममता, करुणा तुझमें अपरिमित, 
फिर क्यों ये तेरा-मेरी, तकरार?
प्रभु! तूने रचा गर...

राम प्रसाद आर्य "रमेश" - जनपद, चम्पावत (उत्तराखण्ड)

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